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________________ को फिर से भटकादे। उस स्थान पर जरा-सी देर के लिये भी ठहरे रहना घातक सिद्ध हो सकता था। फिर क्या था ? मैंने अपने हाथ को एक जोर का झटका दिया और चाबुक को उन तीनों घोड़ों की पीठ पर बरसा दिया। मेरा रथ दौड़ने लगा। गंदगी के उस कीचड़ भरे दलदल से निकल कर जल्दी से जल्दी खुले मैदान में पहुँच जाने की मेरी आतुरता प्रबल हो उठी, जहाँ पहुँच कर मैं शान्ति से अपना स्वरूप-दर्शन कर सकू, आत्म नियंत्रण, आत्मालोचना एवं आत्म-समीक्षण की 'सहायता से अपने विकास का मार्ग खोज सकू तथा अपनी सम्पूर्ण शक्तियों को जगाकर अपने मूल गुणों को अवाप्त कर सकू। मूल स्वरूप की संस्मृति वह खुला मैदान ही तो यह मानव जीवन है, जहाँ मैं पहुँच गया हूँ। मनुष्यता, वीतराग, धर्म-श्रवण, सम्यक् श्रद्धा एवं संयम में पराक्रम की क्षमता-रूप दुर्लभ प्राप्तियाँ यहाँ मुझे मिली हैं, यह मेरी अपने मूल स्वरूप की संस्मृति का ही सुपरिणाम है। ____ मैं अपने मूल स्वरूप की मनोज्ञ झलक पाकर ही तो इस खुले मैदान में पहुँच सका हूँ, जहां मुझे सुअवसर मिला है कि मैं अपने सम्पूर्ण स्वरूप की वास्तविकता को परखू तथा स्वरूप पर छाई मैल की परतों को हटाऊँ। यह मैल पूरी तरह निकलेगा, तभी मूल स्वरूप की उज्ज्वलता प्रकट होगी। मूल स्वरूप की मेरी संस्मृति एक ओर मुझे अपने पूर्ण स्वरूप के दर्शन करने की प्रेरणा दे रही है तो दूसरी ओर उस पूर्ण स्वरूप को प्राप्त करने हेतु कठिन पुरुषार्थ को भी जगा रही है। मैं जान गया हूँ मैं जाग गया हूँ। फिर भी जितना जाना है वह ज्ञान के महासागर की एक बूंद भी नहीं है—अभी तक बहुत जानना है मुझे–ज्ञान की साधना में अपनी सर्व शक्तियाँ जुटा देनी है मुझे। मैं जाग गया हूँ लेकिन यह तो जागृति का पहला ही क्षण है। जागृति की निरन्तरता को बनाये रखने के लिये मेरे 'मैं' को बहुत सावधानी संचित करनी पड़ेगी। ज्ञान का यह प्रकाश अधिकाधिक तेजोमय होता जायगा और जागृति की सावधानी स्वाभाविक एवं स्थायी बनती जायगी, तभी पुरुषार्थ की प्रक्रिया अधिकाधिक त्वरितता ग्रहण करती हुई पुष्ट, प्रबल एवं प्रखर हो सकेगी। मेरे पुरुषार्थ के फावड़े चलते ही रहेंगे तथा पराक्रम का पसीना बहता ही रहेगा —तब उसे कोई रोक नहीं सकेगा। मेरे 'मैं' को उस की तेज चाल से तब कोई डिगा नहीं सकेगा। और इसका सबसे बड़ा कारण यह होगा कि मेरा 'मैं' अपने मैं—पन की अनुभूति ले चुका है, अपनी सुज्ञता, स्वस्थता एवं सुघड़ता को पहिचान चुका है। क्या अब वह पुनः उस अंधकार में—उन्माद में और भ्रष्टाचार में लौटना चाहेगा? जब तक उसे स्व-स्वरूप की संस्मृति रहेगी तथा स्व-अस्तित्व की आस्था रहेगी तब तक वह ऐसा कभी नहीं करेगा। क्या एक कुंए में गिरकर चोट खाया हुआ मनुष्य जानते बूझते हुए फिर से उसी कुए में गिरना चाहेगा? कहावत तो यह है कि दूध का जला हुआ छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीता है। यह दूसरी बात है कि वह फिर शराब पी ले—फिर मदमाता हो जाय और फिर उसी कुंए में गिर जाय। यह नहीं है कि ऐसा नहीं होता, किन्तु ऐसा न होने देने के लिये ही प्रबुद्धता एवं जागृति की निरन्तर आवश्यकता रहती है।
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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