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________________ ( २७ ) (६) — "निस्त्रिंश" " शब्द प्रथम उस तलवार के अर्थ में प्रयुक्तहोता था, जिसकी दाहिनी बाँयी और अगली तीनों धारायें तीक्ष्ण होती थीं । परन्तु निस्त्रिश का आज वह अर्थ नहीं रहा, आज तो यह शब्द सामान्य तलवार और निर्दय प्राणी के अर्थ में व्यवहृत होता है । (७) - " मधु " शब्द वेद काल में केवल जल के अर्थ में प्रयुक्त होता था । कालान्तर में वह पुष्पस्थित मकरन्द रस का वाचक भी होगया और धीरे धीरे मक्षिका संचित मकरन्द और उस के संचय का अनुरूप मास चैत्र और ऋतुवसन्त ये सभी मधु शब्द - वाच्य हो गये पिछले लेखकों ने तो मधु शब्द का मद्य के अर्थ में भी प्रयोग कर डाला | इन थोड़े से उद्धरणों से वाचक- गण को यह ज्ञात हो जायगा कि कोई भी शब्द अपना वाच्यार्थ सदा के लिए टिका नहीं सकता । कई अनेकार्थक शब्द अनेक अर्थों को छोड़ कर एक आध अर्थ को टिकाये रखते हैं, तब अनेक एकार्थक शब्द अनेकार्थक बन बाते हैं । इस दशा में यव आदि शब्दों को पकड़ कर अन्य धान्य वाचक शब्दों और उनके वाच्यार्थ धान्यों का अभाव मान लेना अदुरदर्शिता है। टिप्पणी १ - " निस्त्रिशं शब्दः त्रिभिः प्रदेमैः द्वाभ्याम् धाराभ्याम् अग्रेण च निशितः श्यतीतिच निस्त्रिंशः खङ्गः ख्य ग्रहणात् तत्र ह्यस्य शद्वस्य समासा वृत्तिः । स एष छेदनसमानरूपं क्रौर्य - सामान्य माश्रित्य सर्वत्रैवाभि प्रवृत्तः यो हिलोके क्ररो भवति, स निस्त्रिंशः इत्युच्यते । "यास्क निरूक्त भाष्ये"
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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