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________________ ' ( २६ ) अष्टापद आदि तृण भक्षी और मांस-भक्षी वन्य पशु आ जाते थे। इनमें सिंह अधिक पराक्रमी होने से इनका राजा माना जाता था, इसी कारण से आज भी मृगपति कहलाता है, और अपना आधिपत्य जमाए हुए है, परन्तु मृग शब्द का वास्तविक अर्थ आज संस्कृत शब्द कोष लेखक भी भूल चुके हैं। मृग शब्द को आज केवल हरिण तथा कहीं-कहीं "याचक" के अर्थ का प्रति पादक बताते हैं। (३)-"असुर" शब्द वेद-काल में प्राणवान शक्ति का प्रति पादक था, परन्तु आज वह पौराणिक दैत्य के अर्थ में प्रयुक्त होता है। (४)-"प्रवीण" यह शब्द पहले प्रकृष्ट वीणा वादक के अर्थ में प्रयुक्त होता था, परन्तु आज इसमें अपना मूल अर्थ तिरोहित कर दिया है, और वह चतुर अथवा दक्ष के अर्थ में प्रयुक्त होता है । (५)-"उदार"२ शब्द प्रारम्भ में इसारे से चलने वाले बैल अथवा घोड़े के अर्थ में प्रयुक्त होता था, परन्तु आज इसका मूल अर्थ बदल गया और वह इच्छा से अधिक देने वाले वदान्य पुरुष के अर्थ में प्रयुक्त होता है। टिप्पणी १-"प्रकृष्टो वीणावां प्रवीणो गान्धर्दै अत्र हि अस्य मुख्या वृत्तिः । स एष स्वमर्थमुसृज्यैव गान्धर्वमभ्यासपाटवमत्रं सामान्यमाश्रित्यसर्व त्रैवाभिप्रवृत्तः यो हि यस्मिन् कृतयत्न: उत्पन्न कौशलोभवति स तत्रोच्यते प्रवीण इति तद् यथा “प्रवीणो व्याकरणे" "प्रवीणो निरुक्ते" इति . "यास्क निरूक्त भाष्ये" टिप्पणी २- "उदार', इति प्रागार सन्निपाताद् व्याहतिमात्रेणैल-वाक्-संकेतेनैवसारथे ? वहत्यश्वोऽनङ्वान् वा स उद्गतारत्वात् उदारः । तत्र हि समासा वृत्तिरस्य शब्दस्य। स एष उत्सज्येव स्वमर्थमाकूतानुविधायित्वमात्रमेव सामान्यमाश्रित्य प्रवृत्तः योहि कश्चित् कस्मैचिदाकूतं लक्षयित्वा प्रागेव प्रार्थनात् ददाति स उदार इत्युच्यते । ‘यास्क निरूक्त भाष्ये"
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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