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________________ ( ४०८ ) . मैं जूट के वस्त्र पहनता, श्मशान के वस्त्र, शव के वस्त्र, धूल में फेंके हुए चिथड़े, तिरीट वृक्ष के रेशों के वस्त्र, चर्म, अजिन क्षिप, दर्भ के वस्त्र, वकल के वस्त्र, फलक के वस्त्र, केश निर्मित कम्बल, बाल निर्मित कम्बल, और उलूक के परों से बने वस्त्र को धारण कर रहता था । शिर और मुख के वालों का लोच भी करता था। केश श्मश्रु का लुबन बिना किसी के अभियोग से अपनी इच्छा से करता था। अर्से तक खड़ा रहता, आसन के बिना सोता, बेठता, उकुरु बैठता, स्वेच्छा से काँटो पर उकुरु बैठता, काँटो पर पथारी कर के सोता, प्रातः मध्याह्न शाम को स्वेच्छा से जल में प्रवेश करता । उक्त प्रकारों से और अन्य अनेक प्रकारों से शरीर का आतापन परितापन करता हुआ विचरता था, हे सारि पुत्र ! यह कष्ट मेरी तपस्या मानी जाती थी। भगवान् बुद्ध ने लग भग सात वर्ष तक कष्टानुष्ठान किये, परन्तु उन्हें सम्बोधि प्राप्त नहीं हुई। तब सोचा-केवल शारीरिक कष्टों से आत्मशुद्धि नहीं होती, कायिक, वाचिक, मानसिक दोषों के दूर होने से ही आत्मशुद्धि होती है। यह सोच कर उन्होंने तपोऽनुष्ठान का मार्ग छोड़ दिया और विषयासक्ति तथा कष्ट से विचला मार्ग पकड़ा और आत्म विशुद्धि के लिये मानसिक चिन्तन ध्यान का मार्ग ग्रहण किया। इस वामपरिवर्तन से इनके परिचित संन्यासियों का इनके उपर से विश्वास उठ गया, वे मानने लगेगौतम अपने साधन मार्ग से पतित हो गया है। इसलिये यहाँ आने पर उसका बिनय सत्कार नहीं किया जाय, परन्तु गौतम को
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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