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________________ ( ३६४ ) जीर्णोऽतिशोयोगी, दशान्तो विकलेन्द्रियः । पुत्र - मित्र - गुरु- भ्रातृ-पत्नीभ्यो भैक्ष- माहरेत् || अर्थ - अतिवृद्ध, अतिदुर्बल, अन्तिम दशा प्राप्त और विकलेन्द्रिय योगी, पुत्र, मित्र, गुरू, भाई, और पत्नी से भिक्षा ग्रहण करे । अत्रि कहते हैं श्रायसेन तु पात्रेण यदन्नमुपदीयते । भोक्ता विष्ठा समं भुंक्त, दाता च नरकं व्रजेत् ॥ अर्थ - लोहे के पात्र से दिया गया अन्न खाने वाला विष्ठा खाता है, दाता नरक में जाता है । पयो यावकमेव च । विष्णु कहते हैंभैक्षं यवागू तक्रं वा, फलं मूलं विपक्वं वा, कणपिण्याक सक्तवः ।। इत्येते वै शुभाहारा, योगिनः सिद्धिकारकाः । वङ मूल पत्र पुष्पाणि, ग्राम्यारण्य फलानि च ॥ करण्यावक पिण्याक, शाक तक्र पयो दधि । भिक्षां सर्वरसोपेतां हिंसावर्जं समाश्रन् । अर्थ - यवागू, छछ, दूध, याबक ( यवों से बना हुआ खाद्य पदार्थ ) पका फल तथा मूल कण (सेका हुआ चणा आदि धान्य) पिण्याक ( तिल्ली की खली ) सातू ये सब योगियों के लिये सिद्धि कारक शुभाहार कहे गये हैं ।
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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