SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 393
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३४३ ) षट् कर्माणि प्रामणस्यायममध्यापनं यजनं याजनं दानं प्रतिग्रहश्च । अर्थ-ब्राह्मण के षट् कर्म ये हैं-अध्ययन, अध्यापन, यजन, याजन, दान और प्रतिग्रह । उक्त षट् कर्म करने के योग्य न होने की दशा में ब्राह्मण उपनी जीविका क्षत्रिय अथवा वैश्य कर्म से चला सकता है । वैश्य कर्मों में से उसके लिये वाणिज्य करना ठीक माना गया है, वाणिज्य में वह किन किन चीजों का वाणिज्य न करे इस सम्बन्ध में गौतम धर्मसूत्रकार लिखते हैं। ____तस्यापण्यम् ।।८।। किं तदपण्यमित्यत आह पारस कृतान्न तिल-शाण लौमानिमानि ॥६रक्त निर्णित वाससी ॥१०॥ क्षीरं सविकारम् ।।११ मूल फल पुष्पौषध मधु-मांस तृणोदकापथ्यानि ॥१२।। पशवश्व हिंसा संयोगे ॥१३॥ अर्थ-ब्राह्मण के लिए यह अविक्रय है, वह अविक्रय क्या है सो कहते हैं-गन्ध ( सुगन्धि चूर्ण सुगन्धि तैल आदि ) रस-(घृत तेल, मद्य आदि । कृतान्न ( पकाया हुआ अन्न ) तिल, शण निर्मित वस्त्र, क्षौम-अतशी मय वस्त्र, चर्म, पक्के रक्त रंग से रगे हुये वस्त्र दूध, दुग्ध विकार (खोया पाक्स आदि) मूल-मूलीरक्टाटा आदि फल, पुष्प, औषधियां, शहद, मांस, घास, जल अपथ्य, पशु (जिसको देने से हिंसाका सम्भव हो) सभी पदार्थ वैश्ववृत्ति करने वाले ग्राह्मण के लिये अधिक्रय हैं। समाना ..
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy