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________________ ( २३६ ) २ मिथ्याकार.. साधु से कोई भी मानसिक, वाचिक, कायिक, अपराध हो जाने पर उसे तुरन्त "मिच्छा मी दुक्कड' (मिथ्या मे दुष्कृतम् ) अर्थात् मेरा यह अपराध मिथ्या हो, इस प्रकार उसे भूल का पछतावा करना होता है। ३ तहत्ति (तथाकार ) गुरु अथवा अपने से किसी बड़े श्रमण के कार्य-विषयक सूचना करने पर उसका स्वीकार करता हुआ साधु कहता है तहत्ति ( तथेति ) अर्थात् वैसा ही करूंगा। ४ आवस्सिही ( आवश्यकी) श्रमण किसी जरूरी कार्य के लिये अपने स्थान से बाहर निकलता है, तब वह "आवस्सिही" ( आवश्यकी ) कहकर निकलता है क्योंकि श्रमण को निष्कारण भ्रमण निषिद्ध होने से वह इससे सूचित करता है कि मैं आवश्यक कार्य के लिये जा रहा हूँ। ५ निस्सिही ( नैषेधिकी) साधु आवश्यक कार्य से लौटकर अपने उपाश्रय में आता है तब "निस्सिही" नैषेधिकी ) कहकर स्थान में प्रवेश करता है। इसका तात्पर्य यह है कि वह जिस आवश्यक कार्य से बाहर गया था, उसको करके अब वह भ्रमण से निवृत्त हो गया।
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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