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________________ ' ( २३१ ) के सामान्य प्राचार का दिग्दर्शन कराना प्रासङ्गिक होगा। वे गाथायें क्रमशः नीचे दी जाती हैं। संजमे सुठियप्पाणं, विप्पमुक्काण ताइणं । तेसिमेय मणाइन्न, निग्गन्थाणं महेसिणं ॥१॥ अर्थ-जो संयम-मार्ग में सुस्थित है, संसार के प्रलोभनों से मुक्त है, सभी त्रस-स्थावर प्राणियों के रक्षक हैं, उन निर्ग्रन्थ महर्षियों के लिये नीचे के कार्य अनाचीर्ण (अकर्त्तव्य ) है । उद्धसियं कीयगडं, नियागमभिहडाणिय । राइभत्ते सिणाणेय, गंध मल्लेय वीयणे ॥२॥ संनिहिं गिहि मनेय, रायपिंडे किमिच्छए । संवाहणं दंत पहोयणाय, संपुच्छणे देहपलोयणाय ॥३॥ अट्ठावएयनालीए, छत्तस्सय धारणाढाए । ते गिच्छं पाहणाप्पाए, समारम्भं च जोइणो ॥४॥ लिज्जायर पिंडं च, आसं दीपलियं कये । गिहिंतर निसिज्जा य, गायस्सु वट्टणाणिय ॥॥ गिहिणो वेत्रावडियं, जाय आजीव वत्तिया । तत्ता निव्वुड भोइन, आउरस्सरणाणिय ॥६॥ मूलए सिंगवेरेय, इच्छुखंडे अनिव्वुड़े । कंदे मूले य सच्चिने, फले बीए य आमए ॥७॥ सोवच्चले सिंधवे लोणे, रोमालोणेय प्रामए। सामुद्दे पंमु खारेय, काला लोणेय अम्मए ॥८॥
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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