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________________ ( ६६ ) पशुमांस के बदले पिष्ट- घृत साध्य सीरा अथवा अन्य पक्वानों को अधिक पसन्द करते थे, इस कारण पितर भी उन पक्कानों से ही सन्तुष्ट हो जाते थे। हिंसा कम होने के कारण . ऊपर हम देख आये हैं कि ऋक् संहिता और सामसंहिता के सम्पन्न होने तक वैदिक यज्ञों में पशुहिंसा का नाम तक नहीं था, परन्तु यजुः तथा अथर्व के समय से यज्ञों में पशुबलि की बाढ आने लगी थी, क्योंकि उक्त दो प्राचीन वेद संहिताओं में भी कई नये सूक्त मिल गये थे, जिनमें कि हिंसा को प्रोत्साहन देने वाले संदिग्ध वाक्य थे। पिछली दो कृतियों में तो भ्रामक सूक्तों से भी अधिक स्पष्ट हिंसा के विधान दृष्टिगोचर होते थे, दुर्भाग्य योग से उस समय में वेदों का स्पष्ट अर्थ बताने वाले निघण्टु भी नामशेष होगये थे। इस कारण से उस समय के विधानों में पशुबलि ने अपना स्थान जमा लिया, परन्तु यह स्थिति अधिक समय तक नहीं रही । प्रथम तो भारत के आर्यजनों की भावना ही ऐसी कोमल थी कि वे प्राणिवध जैसे निर्दय कामों में आनन्द नहीं पाते थे। अनार्य जातियों के अतिरिक्त केवल द्विजाति ही नहीं शूद्र भी प्राणीहिंसा करने से हिचकिचाया करते थे। इसमें क्षत्रिय जाति अपवाद रूप अवश्य थी, परन्तु वैदिक धर्म के उपदेशकों ने उन्हें भी ऐसी शिक्षा दे रखी थी कि, यज्ञ में की गई पशुहिंसा ही पापजनक नहीं होती, इस शिक्षण से क्षत्रियजाति का भी अधिकांश भाग अहिंसक होगया था। केवल छोटे बड़े राजा जो यज्ञ कराके
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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