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________________ विषयनी दृष्टिए जोईए तो एमणे आगम, तर्क, न्याय, अनेकान्तवाद, तत्त्वज्ञान, साहित्य, अलंकार, छंद, योग, अध्यात्म, आचार, चारित्र, उपदेश आदि अनेक विषयो उपर मार्मिक अने महत्त्वपूर्ण रीते लख्युं छे. संख्यानी दृष्टिए जोईए तो एमनी कृतिओनी संख्या ‘अनेक' शब्दथी नहीं पण 'सेंकडो' शब्दथी । ३ जणावी शकाय तेवी छे. आ कृतिओ बहुधा आगमिक अने तार्किक बने प्रकारनी छे. एमां केटलीक पूर्ण, अपूर्ण वंने जातनी छे अने अनेक कृतिओ अनुपलब्ध छे. पोते श्वेताम्बर परंपराना होवा छतां । दिगम्बराचार्यकृत ग्रन्थ उपर टीका रची छे. जैन मुनिराज होवा छतां अजैन ग्रन्थो उपर टीका रची शक्या छे. आ एमना सर्वग्राही पांडित्यनो प्रखर पुरावो छे. शैलीनी दृष्टिए जोईए तो एमनी कृतिओ खंडनात्मक, प्रतिपादनात्मक अने समन्वयात्मक छे. उपाध्यायजीनी उपलब्ध कृतिओनु, पूर्ण योग्यता प्राप्त करीने, पूरा परिश्रमथी अध्ययन करवामां आवे तो अध्येता जैन आगम के जैन तर्कनो लगभग संपूर्ण ज्ञाता बनी शके. अनेकविध विषयो उपर मूल्यवान, अतिमहत्त्वपूर्ण सेंकडो कृतिओना सर्जको आ देशमा गण्यागांठ्या पाक्या छे, तेमां उपाध्यायजीनो निःशंक समावेश थाय छे. आवी विरल शक्ति अने पुण्याई कोईना ज ललाटे लखायेली होय छे. आ शक्ति खरेखर सदगुरुकृपा, जन्मान्तरनो तेजस्वी ज्ञानसंस्कार अने सरस्वतीनुं साक्षात् मेळवेलु वरदान आ त्रिवेणीसंगमने आभारी हती. तेओश्री ‘अवधान'कार (एटले बुद्धिनी धारणाशक्तिना चमत्कारो करनार) पण हता. अमदावादना , श्रीसंघ वच्चे अने वीजी वार अमदावादना मुसलमान सुवानी राजसभामां आ अवधानना प्रयोगो एमणे करी वताव्या हता. ते जोईने सहु आश्चर्यमुग्ध वन्या हता. मानवीनी बुद्धिशक्तिनो अद्भुत परचो बतावी जैन धर्म अने जैन साधुनुं असाधारण गौरव वधार्यु हतुं. अनेक विषयोना तलस्पर्शी विद्वान यशोविजयजीए 'नव्य न्याय' ने एवो आत्मसात् कर्यो हतो के तेओ नव्य न्यायना 'अवतार' लेखाया हता. आ कारणथी तेओ 'तार्किकशिरोमणि' तरीके पण विख्यात हता. जैन संघमां नव्य न्यायना आ आद्य विद्वान हता. जैन सिद्धान्तो १ अने तेना त्यागवैराग्यप्रधान आचारोने नव्य न्यायना माध्यम द्वारा तर्कवद्ध करनार एकमात्र उपाध्यायजी ज हता. १२०० वर्ष पहेला मिथिलानगरीमा गंगेश उपाध्याये जन्म आपेल नव्य न्यायनी पद्धति समजवासमजाववामां धणी कटिन छे. वैदिक धर्मना विद्वानोए शास्त्रीय रहस्यो समजाववामां एनो उपयोग कर्यो हतो पण जैन धर्मनां रहस्यो समजाववा माटे एने उपयोगमा लेवानुं वन्यु नहोतुं ते छेक अढारमी सदीमा ? उपाध्यायजीना हाथे थयुं. तेओनी शिष्यसपत्ति अल्पसंख्यक हती. एमनुं अवसान गुजरातना वडोदरा शहेरथी १६ माईल दूर आवला प्राचीन दर्भावती, वर्तमानमा ‘डभोई' शहरमां वि.सं. १७४३मां थयुं हतुं. डभोई मारी जन्मभूमि अने उपाध्यायजी महाराज प्रत्ये मने नानपणथी ज ऊंडी श्रद्धाभक्ति. वरसो वाद उपाध्यायजीनी देहान्तभूमि घर एक भव्य स्मारक ऊभुं कराव्युं अने त्यां एमनी, वि.सं. १७४५मा प्रतिष्ठा करायेली पादुका पधराववामा आवी. आम आ स्थळ गुरुयात्रा एक धाम बनी गयुं. ज्ञानार्थी साधु-साध्वीओए आ पवित्र भूमिनी स्पर्शना करी, पादुकाना दर्शन करी पावन थर्बु जोईए अने एना सानिध्यमा नव्य न्यायना माध्यमथी जैन शास्त्रो समजवा-समजाववानी शक्तिनी याचना करवी जोईए. मुंबई, वालकेश्वर, सं. २०५३ – यशोदेवसूरि KARANA [9:4] CXCOMVWww 2084 E
SR No.022874
Book TitlePrastavana Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodevsuri
PublisherMuktikamal Jain Mohanmala
Publication Year2006
Total Pages850
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size28 MB
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