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________________ ************************************************************** *********************************************** * केवलज्ञान के प्रत्यक्ष बल से विश्व के सभी सचेतन प्राणी, यथार्थ तथा अचेतन द्रव्य-पदार्थों के आमूल- * * चूल रहस्यों को जान सकती हैं। उनकी त्रैकालिक स्थिति समझ सकती हैं। अपने आत्मवल से * विश्व में यथेच्छ स्थल पर उड़कर जाना हो, तो पलभर में आ-जा सकती है। सर्वज्ञ वीतराग दशा * को प्राप्त प्रभु हजारों आत्माओं को मङ्गल और कल्याणकारी उपदेश सतत प्रदान करते है तथा विश्व * के स्वरूप के यथार्थरूप से ज्ञाता होने के कारण उसे यथार्थरूप में ही प्रकाशित भी करते हैं। ये अरिहंत भगवंत अपनी आयु को पूर्ण करके जब निर्वाण (देह से मुक्ति) प्राप्त करते हैं तब * वे सिद्धशिला पर स्थित मुक्ति के स्थान में उत्पन्न हो जाते हैं। और वहाँ शाश्वतकाल तक आत्मिक सुख का अद्भुत आनन्द प्राप्त करते हैं जैसा कि आनन्द विश्व के किसी भी स्थल अथवा पदार्थ में नहीं होता। यह सब अरिहन्तपद किन कारणों से? किस प्रकार प्राप्त होता है, इसकी एक अच्छी-सी रुपरेखा प्रस्तुत की गई। संक्षेप में समझना चाहें तो-ये अरिहंत की आत्माएँ अठारह दोषों से रहित हैं। परम-पवित्र और परमोपकारी हैं। वीचराग हैं। प्रशमरस से पूर्ण और आनन्दमय हैं। उनकी मुक्तिमार्ग बताने की शैली अनूठी और अद्भुत है। उनका तत्त्वप्रतिपादन सदा स्याद्वाद__ अनेकान्तवाद की मुद्रा से अंकित है। मन, वचन और काया के निग्रह में वे वेजोड़ है। सूर्य से भी अधिक तेजस्वी और चन्द्रमा से भी अधिक सौम्य और शीतल है। सागर से भी अधिक गम्भीर * है। मेरु के समान अडिग और अचल है। अनुपम रूप के स्वामी हैं। ऐसे अनेकानेक विशेषणों से शोभित, सर्वगुणसम्पन्न अरिहंत ही परमोपास्य हैं और इसीलिये वे स्तुति के पात्र हैं। इसी प्रसङ्ग में एक प्रश्न और किया जा सकता है कि 'स्तुति करने से क्या लाभ मिलता है?' इसका उत्तर इस प्रकार है सर्वगुणसम्पन्न अरिहंतों की स्तुति करने से मुक्ति के बीजरूप तथा आत्मिक-विकास के सोपानरुप सम्यग्दर्शन' की विशुद्धि होती है। तथा स्तुति करते समय यदि भगवान् हृदय-मन्दिर के सिंहासन पर विराजमान हो तो उससे क्लिष्ट कर्म का नाश होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में एक स्थान पर देवों के स्तव-स्तुति-रूप भाव-मङ्गल के द्वारा जीव किस लाभ * को प्राप्त करता है ? ऐसा एक प्रश्न हुआ है। वहाँ उत्तरमें भगवान् ने बताया है कि-स्तव अथवा *************************************************************** १ (प्र०) चउवीसत्थएणं भत्ते ! किं जणयई ? (उ०) चउवीसत्थएणं दंसण-विसोहि जणयई ।।६।। (उत्तरा०) हदि स्थिते च भगवति क्लिष्टकर्मविगमः।। (धर्मविन्दु) * ३ (प्र०) 'थय थुइ मङ्गलेणं भंते! जीवे किं जणयइ ? (उ०) नाणदसणचारित्तवोहिलाभं संजणयइ, नाणदसणचारित्तबोहिसंपन्नेणं जीवे अन्तकिरियं कप्पविमाणोवत्तियं आराहणं * आराहेइ ।।१४॥ ******************** [ ********************
SR No.022874
Book TitlePrastavana Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodevsuri
PublisherMuktikamal Jain Mohanmala
Publication Year2006
Total Pages850
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size28 MB
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