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________________ रहते हैं। इसके पश्चात् चारित्र, दीक्षा अथवा संयम के समक्ष आनेवाले चारित्रमोहनीय कर्म का क्षयोपशम होने पर, अशरण जगत् को शरण देने, अनाथ जगत् के नाथ बनने, विश्व का योग - क्षेम करने की शक्ति प्राप्त करने, यथायोग्य अवसर पर सावद्य (पाप) योग के प्रत्याख्यान तथा निरवद्य योग के आसेवन-स्वरूप चारित्र को ग्रहण करते हैं। तत्पश्चात् परमात्मा सोचते है कि जन्म, जरा, मरण से पीड़ित तथा तत्प्रायोग्य अन्य अनेक दुःखों से सन्तप्त जगत् को यदि सच्चे सुख और शांति का मार्ग बताना हो, तो पहले स्वयं उस मार्ग को यथार्थ रूप में जानना चाहिए। इसके लिए अपूर्ण नहीं अपितु सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। जिसे शास्त्रीय शब्दों में केवलज्ञान अथवा सर्वज्ञत्व कहते हैं । तथा ऐसा ज्ञान, अज्ञान और मोह के सर्वथा क्षय के बिना प्रकट नहीं होता । अतः भगवान् उसका क्षय करने के लिए अहिंसा, संयम और तप की साधना में उग्ररूप से लग जाते हैं । उत्कृष्ट कोटि के अतिनिर्मल संयम की आराधना, विपुल तथा अत्युग्रकोटि की तपश्चर्या को माध्यम बनाकर गाँव-गाँव, जंगल-जंगल और नगर - नगर में (प्रायः मौनावस्था में) विचरण करते हैं। इस बीच उनका मनोमन्थन चलता रहता है। विशिष्ट चिन्तन और गम्भीर आत्मसंशोधनपूर्वक क्षमा, समता आदि शस्त्रों से सुसज्जित होकर मोहनीय आदि कर्मराजाओं के साथ महायुद्ध में उतरते हैं तथा पूर्वसञ्चित अनेक संविलष्ट कर्मो को नष्ट करते जाते हैं। इस साधना के बीच चाहे जैसे उपसर्ग, आवषिर्या संकट अथवा कठिनाइयाँ आएँ तो उनका सहर्ष स्वागत करते हैं। वे उसे समभाव से देखते हैं जिसके कारण मौलिक प्रकाश, बढ़ता जाता है । अन्त में वीतरागदशा की पराकाष्ठा तक पहुँचने पर आत्मा का निर्मल स्वभाव प्रकट हो जाता है । आत्मा के असंख्य प्रदेशों पर आच्छादित कर्म के आवरण हट जाने पर केवलज्ञान और केवलदर्शन का सम्पूर्ण ज्ञानप्रकाश प्रकट हो जाता है अर्थात् त्रिकाल - ज्ञानादि की प्राप्ति हो जाती है । प्रचलित शब्दों में वे 'सर्वज्ञ बन गए ऐसा कहा जाता है । यह ज्ञान प्रकट होने पर विश्व के समस्त द्रव्य-पदार्थ और उनके त्रैकालिक भावों को सम्पूर्ण रूप से जाननेवाले तथा देखनेवाले बनते है और तब पराकाष्ठा का आत्मबल प्रकट होता है जिसे शास्त्रीय शब्दों में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तचारित्र तथा अनन्तवीर्य-बल (शक्ति) के रूप में पहचाना जाता है । इस प्रकार जो सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सर्वचारित्री तथा सर्वशक्तिमान् होते हैं वे ही स्तुति के योग्य होते हैं। सर्वज्ञ बने अर्थात् वे, प्राणियों के लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा ? धर्म क्या है और अधर्म क्या ? हेय क्या है और उपादेय क्या ? कर्तव्य क्या है और अकर्तव्य क्या ? सुख किससे मिलता है और दुःख किससे मिलता है? आत्मा है अथवा नहीं ? है तो कैसा है ? उसका स्वरूप क्या है ? कर्म क्या है ? कर्म का स्वरूप क्या है ? इस चेतन स्वरूप आत्मा के साथ जड़रूप कर्म का क्या सम्बन्ध है ? हर समय जीव को केवल सुख ही सुख का पूर्णरूपेण अनुभव हो, ऐसा कोई स्थान है क्या ? यदि है तो वह किस प्रकार प्राप्त हो सकता है ? इत्यादि अनेक बातों को जानते हैं । आज के वैज्ञानिकों को तो प्राणियों अथवा संसार के एक-एक पदार्थ के रहस्य को समझने के लिए अनेक प्रयत्न-प्रयोग करने पड़ते है । पर ये आत्माएँ तो बिना किसी प्रयत्न- प्रयोग के, एकमात्र [ ४२३ ] k** ******
SR No.022874
Book TitlePrastavana Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodevsuri
PublisherMuktikamal Jain Mohanmala
Publication Year2006
Total Pages850
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size28 MB
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