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________________ और हेमचन्द्राचार्य आदि के चित्र सम्मिलित हैं । ये समग्र चित्र जयपुरी चित्रकला के उत्कृष्ट उदाहरण है। इन चित्रों का निर्माण इतना मनोरम, सुन्दर और नयनाह्लादक हुआ है कि घर देखते ही बनता है। इस पुस्तक का अधिक प्रचार-प्रसार नही हो पाया । आचार्यश्री की यह कला इस पुस्तक तक ही सीमित नहीं रही बल्कि भित्ति चित्रों में भी इसका अपूर्व दिग्दर्शन हमें प्राप्त होता है। वालकेश्वर, मुंबई में स्थित बाबू पन्नालाल अमीचंद जैन देरासर के प्रथम और द्वितीय तल की भित्तिकाएँ देखी जा सकती हैं। वर्षों तक एक स्थान पर रहकर अपनी देख-रेख में निर्देशन देते हुए जो चित्रित भित्तिकाएँ तैयार की है. वे अत्यन्त दर्शनीय और नयनाभिराम हैं। प्रत्येक दर्शक उन चित्र भित्तिकाओं को देखकर प्रसन्नता से अभिभूत होकर वरवस अपने मुख से वाह-वाह कहे बिना नहीं रह सकता । चित्रकला के प्रति प्रारम्भिक रुझान के रूप में आचार्यश्री ने और भी कई प्रयोग किये हैं : श्रावकगण प्रतिक्रमण इत्यादि करते हैं। परम्परा प्रधान होने के कारण केवल सूत्रोच्चारण करते हैं। हजार व्यक्तियों के समुदाय में २-४ व्यक्ति ही उन सूत्रों के अर्थ को समझ पाते हैं। किस प्रकार की विधि से सामायिक या प्रतिक्रमण करना चाहिए, इसका भी प्रायः ज्ञान नहीं होता है। एक परिपाटी होने के कारण लोगों की इसमें हार्दिक रुचि भी नहीं रहती है । इसलिए आचार्यश्री ने कई वर्षों पूर्व यह प्रयोग किया था। इसके फलस्वरूप सचित्र और अर्थ सहित प्रतिक्रमण पुस्तक भी प्रकाशित करवाई थी, उसको भी जनता ने सहर्ष स्वीकार किया था। मूर्तिकला अनुसंधान के क्षेत्र में भगवान पार्श्वनाथ के पार्श्वयक्ष और यक्षिणी पद्मावती तथा धरणेन्द्र और पद्मावती एक ही हैं या भिन्न-भिन्न हैं, इसका भी अवगाहन विविध साहित्य के आलोक में किया और पृथक्-पृथक् भी सिद्ध किया। आचार्यश्री प्रारम्भ से ही माँ पद्मावती के हृदय से उपासक रहे हैं, साधना भी की है इसी कारण माँ पद्मावती का आशीर्वाद उनको प्राप्त हैं तथा आज भी माँ पद्मावती उनको समय-समय पर सहयोग भी देती रहती हैं। पद्मावती की विविध प्रकारकी मूर्तियाँ भारतवर्षमें पाई जाती हैं। इनकी वर्षों से अभिलाषा थी कि माँ पद्मावती की ऐसी मूर्ति निर्माण की जाए, जो शास्त्र दृष्टि से सहमत भी हो और मेरे को प्रकाशित भी कर सके। धीमे-धीमे इनका यह मनोरथ पनपता रहा और क्रमशः यह सफल भी हुआ। वालकेश्वर मंदिर के ट्रस्ट द्वारा पद्मावती आदि देवी मूर्तिओं की योजना स्वीकृत होने पर यहीं के ट्रस्ट मण्डल ने इसके निर्माण का वो भी आचार्यश्री पर डाला । इन्होने भी अपनी भक्ति, सूझ-बूझ पैनी दृष्टि को ध्यान में रखकर जयपुर के मूर्तिकार की [२३]
SR No.022874
Book TitlePrastavana Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodevsuri
PublisherMuktikamal Jain Mohanmala
Publication Year2006
Total Pages850
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size28 MB
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