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________________ उत्पत्ति-वृद्धि-क्षय की प्रक्रिया, १६. पुण्य-पाप की बन्ध व्युच्छित्ति : एक चिन्तन, १७. मुक्ति में पुण्य सहायक, पाप बाधक, १८. पुण्य के अनुभाग का क्षय किसी साधना से नहीं, १९. पुण्य-पाप के अनुबंध की चौकडी, २०. पुण्य-पाप आस्रव का हेतु : शुद्ध-अशुद्ध उपयोग, २१. शुभयोग (सद्प्रवृत्ति) से पाप कर्मक्षय होते हैं, २२. अनुकम्पा से पुण्यास्रव व कर्मक्षय दोनों होते हैं, २३. आत्म-विकास, सम्पन्नता और पुण्य-पाप, २४. सम्पन्नता पुण्य का और विपन्नता पाप का फल, २५. पुण्य-पाप विषयक ज्ञातव्य तथ्य (पुस्तक का सार संक्षेप) ___ डॉ० सागरमलजी की भूमिका के अंश पुण्य की उपादेयता का प्रश्न पुण्य की उपादेयता को सिद्ध करने के लिए आध्यात्मिक साधक प्रज्ञापुरुष पं. कन्हैयालाल जी लोढ़ा ने अति परिश्रम करके प्रस्तुत कृति में सप्रमाण यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि पुण्य हेय नहीं है, अपितु उपादेय है। यदि पुण्य कर्म को मुक्ति में बाधक मानकर हेय मानेंगे तो तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म को भी मुक्ति में बाधक मानना होगा, किन्तु कोई भी जैन विचारक तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म के बंध को मुक्ति में बाधक, अनुपादेय य हेय नहीं मानता है। क्योंकि तीर्थंकर नामकर्म के बंध के पश्चात् नियमतः तीसरे भव में अवश्य मुक्ति होती है। पुनः तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म का, जब तक उनके आयुष्य कर्म की स्थिति होती है तब तक ही अस्तित्व रहता है। अतः वह मुक्ति में बाधक नहीं होता, क्योंकि तीर्थंकर नाम कर्म से युक्त जीव तीर्थंकर नाम कर्म गोत्र के उदय की अवस्था में नियम से ही मुक्ति को प्राप्त होता है। वस्ततः व्यक्ति में जब तक योग अर्थात् मन-वचन-कर्म की प्रवृत्तियाँ हैं तब तक कर्मास्रव अपरिहार्य है। फिर भी जैनाचार्यों ने इन योगों अथवा मन, वचन और काया की प्रवृत्तियों को हेय नहीं बताया है और न उन्हें त्यागने का ही निर्देश दिया है। उनका निर्देश मात्र इतना ही है कि मन, वचन और काया की जो अशुभ या अप्रशस्त प्रवृत्तियाँ हैं, उन्हें रोका जाये, प्रशस्त प्रवृत्तियों के रोकने का कहीं भी कोई निर्देश नहीं है। तीर्थंकर अथवा केवली भी योग-निरोध उसी समय करता है जब आयुष्य कर्म मात्र पाँच हस्व-स्वरों के उच्चारण लगने वाले समय के समतुल्य रह जाता है, अतः पुण्य कर्म को मुक्ति में बाधक या संसार परिभ्रमण का कारण नहीं माना जा सकता है। वस्तुतः संसार परिभ्रमण का कारण नहीं है। सत्य तो यह है कि ईर्यापथिक आस्रव वस्तुतः बंध नहीं करता है। पुण्य-पाप तत्त्व [51]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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