SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शरीर आदि साधन सामग्री है, साधन, साध्य एवं जीवन नहीं है। साधनसामग्री को साध्य व जीवन मानना भयंकर भूल है, अपना घोर अहित करना है। इस भूल के रहते मुक्ति की प्राप्ति कदापि संभव नहीं है। अतः साधक का हित पुण्य कर्म के संपादन में है, उसमें आबद्ध होने में नहीं है। साधक का कर्तव्य पुण्य कर्म का सदुपयोग दया, दान, सेवा, साधना में कर, कर्म की दासता से छुटकारा पा लेने में है, उससे ऊपर उठ जाने में है, उसके आश्रय का त्यागकर स्वाधीन हो जाने में है। साधक के लिए पुण्य कर्म से प्राप्त सामग्री के सदुपयोग का दायित्व है, जो साधना में सहायक है इसे कभी नहीं भूलना चाहिए अर्थात् साधक को पुण्य कर्म से प्राप्त सामग्री के दासत्व से छुटकारा पाना है। प्रस्तुत पुस्तक में पुण्य-पाप का विवेचन किया गया है। इसमें पाप तत्त्व, पापासव, पापकर्म, पाप-प्रवृत्ति आदि पाप के सब रूप पूर्ण रूप से त्याज्य ही है। परन्तु जहाँ भी पुण्य को महत्त्व दिया गया है व इसे मुक्ति में सहायक कहा है वहाँ पुण्य के कारणभूत कषाय में कमी रूप विशुद्धि भाव को, आत्मपवित्रता को, पुण्य कर्म के सदुपयोग को, पुण्य के अनुभाव को ही ग्रहण करना चाहिये। पुण्य कर्मों का उत्कृष्ट अनुभाग आत्मा की विशुद्धि की पूर्णता का द्योतक है। पुण्य कर्मों के अनुभाग की उत्कृष्ट अवस्था में ही केवलज्ञान एवं केवलदर्शन संभव है। अतः पुण्य कर्म में महत्त्व आत्म-विशुद्धि का ही है। __इस कृति में मैंने जो निष्कर्ष दिए हैं, वे जैनागम एवं कर्म-सिद्धान्त के ग्रंथों में प्रतिपादित तथ्यों के आधार पर स्थापित हैं। विशेष जानकारी के लिए पूर्व प्रकाशित पुस्तक 'पुण्य-पाप तत्त्व' में निम्नांकित प्रकरण पठनीय है- १. पुण्य तत्त्व : स्वरूप और महत्त्व, २. पाप तत्त्व : स्वरूप और भेद, ३. पाप ही त्याज्य है, पुण्य नहीं, ४. पुण्य-पाप तत्त्व और पुण्य-पाप कर्म में अन्तर, ५. पाप-पुण्य का आधार : संक्लेश-विशुद्धि, ६. कषाय की मन्दता पुण्य है, मन्द कषाय पाप है,७. कर्म-सिद्धान्त और पुण्य-पाप, ८. तत्त्वज्ञान और पुण्य-पाप, ९. पुण्य का उपार्जन कषाय की कमी से और पाप का उपार्जन कषाय की वृद्धि से, १०. क्षयोपशमादि भाव, पुण्य और धर्म, ११. अहिंसा, पुण्य और धर्म, १२. पुण्य-पाप का परिणाम, १३. पुण्य-पाप कर्मबंध का मुख्य कारण कषाय है, योग नहीं, १४. पुण्य की अभिवृद्धि से पाप का क्षय, १५. पुण्य-पाप की [50] जैनतत्त्व सार
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy