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________________ पुस्तक में जिज्ञासाओं के समाधान के लिए कुछ तथ्यात्मक सिद्धान्तों एवं प्रमाणों को एकाधिक बार दोहराना पड़ा है। इसे पुनरुक्त दोष न समझा जावे । विषय के प्रतिपादन को स्पष्ट एवं पुष्ट करने के लिए यथाप्रसंग परिभाषाओं एवं प्रमाणों के उद्धरणों को बार-बार प्रस्तुत करना आवश्यक था । ऐसा न करने पर उस प्रसंग में विषय का विवेचन अधूरा रह जाता जिससे सम्यक् समाधान नहीं हो सकता था । अत: निवेदन है कि प्रकृत विषय पर जो प्रमाण दिये गए हैं, उन पर निष्पक्ष होकर गहन-चिंतन-मनन करें और वस्तु तथ्य का सम्यक् निर्णय करें । प्राणिमात्र का हित राग, द्वेष, विषय, कषाय, मोह आदि दोषों से रहित होने में, अपने स्वभाव को प्रकट करने में है, शेष सब व्यर्थ है प्रस्तुत पुस्तक का लक्ष्य भी यही प्रतिपादित करना रहा है । अत: हम वाद-विवाद से ऊपर उठकर विवेच्य - विषय से अपने विकारों को घटाये, सद्गुणों को प्रकट करें, यही नम्र निवेदन है। वस्तुतः जीव के हित-अहित का कारण भावों की विशुद्धि - अशुद्धि ही है। मन, वचन एवं काया की सद्प्रवृत्तियों तथा दुष्प्रवृत्तियों में मुख्यता भावों की ही है । भावों की अशुद्धि पाप कर्मों के बंध की और भावों की विशुद्धि पाप कर्मों के निरोध, निर्जरा व मोक्ष की तथा पुण्योपार्जन की हेतु हैं। बंध व मोक्ष के मुख्य हेतु अशुद्ध-शुद्ध भाव ही है । जिस भाव व उसकी क्रियात्मक प्रवृत्ति से आत्मा का पतन हो उसे पाप तत्त्व कहा है। आत्मा का पतन राग, द्वेष आदि दूषित भावों से एवं प्राणातिपात, मृषावाद आदि दुष्प्रवृत्तियों से होता है । अत: राग, द्वेष, प्राणातिपात आदि दोष व दुष्प्रवृत्तियाँ पाप हैं। इन्हीं पापों के परिणाम से पाप कर्मों का उपार्जन, आस्रव व बंध आदि पाप के विभिन्न रूप (प्रकार) जीव के गुणों के घातक, भवभ्रमण कराने वाले, अकल्याणकारी, संसारवर्द्धक एवं दुःखद होते हैं । अतः ये सब हेय व त्याज्य हैं। पाप तत्त्व के विपरीत पुण्य तत्त्व है। जिससे आत्मा का उत्थान हो, आत्मा पवित्र हो, वह पुण्य है। आत्मा की अपवित्रता का हेतु पाप व दोष हैं। दोषों में, कषायों में कमी होने से भावों में विशुद्धि या पवित्रता होती है जिससे क्षमा, सरलता, विनम्रता, करुणा आदि जीव के स्वाभाविक गुणों में वृद्धि होती है तथा ये गुण दया, दान, सेवा, स्वाध्याय आदि सद्प्रवृत्तियों के रूप में प्रकट होते हैं, इन्हें ही पुण्य तत्त्व कहा गया है जो आध्यात्मिक विकास का सूचक है । आध्यात्मिक विकास पुण्य तत्त्व का आंतरिक फल [ 48 ] जैतत्त्व सा
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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