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________________ प्राक्कथन (पुण्य-पाप तत्त्व पुस्तक से उद्धृत लेखक का प्राक्कथन) ___ - कन्हैयालाल लोढ़ा वर्तमान में कतिपय विद्वान् दया, दान, करुणा, अनुकम्पा, वात्सल्य, वैयावृत्त्य (सेवा) आदि सद्प्रवृत्तियों को तथा नम्रता, मृदुता, मित्रता, सरलता, सज्जनता, मानवता, उदारता आदि सद्गुणों को धर्म नहीं मानते हैं, पुण्य मानते हैं और पुण्य को विभाव, त्याज्य व संसार परिभ्रमण का कारण मानते हैं। प्रकारान्तर से कहें तो सद्गुणों एवं सद्प्रवृत्तियों को हेय व त्याज्य मानते हैं । इस भ्रांति का मुख्य कारण पुण्य तत्त्व, पुण्यासव, पुण्य का अनुभाग व पुण्य कर्म के स्थिति बंध आदि के अंतर के मर्म पर ध्यान नहीं देना है। इस पुस्तक में इनका व इससे संबंधित अन्य विषयों को विवेचन कर वास्तविकता का अनुसंधान करने का प्रयास किया गया है। इस पुस्तक का विषय पुण्य-पाप दोनों का विवेचन करना रहा है। परन्त पाप के स्वरूप, परिभाषा, लक्षण आदि में मतभेद नगण्य होने से पाप का विवेचन सामान्य व संक्षेप में किया गया है। जबकि पुण्य के विषय में अत्यधिक मतभेद एवं परस्पर विरोधी मान्यताएँ होने से अनेक प्रश्न एवं जिज्ञासाएँ उठती हैं। इसलिए पुण्य का विविध विवक्षाओं एवं विस्तार से विवेचन किया गया। यह विवेचन उत्तराध्ययन सूत्र, भगवतीसूत्र आदि आगम, षट्खंडागम और उसकी टीका, धवलमहाधवल कषायपाहुड और उसकी टीका जयधवल, कर्मग्रन्थ, कम्मपयडि, पंचसंग्रह गोम्मटसार कर्मकाण्ड आदि कर्म-सिद्धान्त के ग्रन्थों के प्रमाणों को प्रस्तुत करते हुए किया है। लेखन के पूर्व विद्वानों से विचार-विमर्श कर, पूर्वापर विरोधों का निरसन करने का पूरा प्रयास किया है। पुण्यकर्म धर्म नहीं हो सकता, इनमें दो मत नहीं हो सकते। कर्म पुद्गल व अजीव है, अतः जीव के स्वभाव-विभाव से इसका कोई सीधा संबंध नही है। आत्मा के स्वभाव-विभाव का आधार उसके सगुणों एवं दुर्गुण होते हैं। सद्गुण सद्प्रवृत्ति के, दुर्गुण दुष्प्रवृत्ति के जनक हैं। दया, दान, करुणा, नम्रता, मृदुता आदि गुणों का क्रियात्मक रूप सद्प्रवृतियाँ या शुभयोग हैं जो कषाय कमी होने से होते हैं। अतः ये स्वभाव के द्योतक होने से धर्म व पुण्य दोनों हैं। इस दृष्टि से पुण्य तत्त्व (शुभ व शुद्ध अध्यवसाय) व धर्म एक भी हैं। इसी प्रकार अनेक विवक्षाओं से पुस्तक में यथाप्रसंग विचार-विमर्थ व मंथन किया गया है। इससे कितना नवनीत प्राप्त हुआ है, इसका निर्णय पाठक स्वयं करेंगे। पुण्य-पाप तत्त्व [47]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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