SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्दर्शन आदि के लिए जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध एवं मोक्ष सहित नव तत्त्वों को जानना एवं उन पर श्रद्धान करना आवश्यक है। लेखक ने सभी नवतत्त्वों पर लेखन किया है। उनमें सबसे प्रथम जीव एवं अजीव तत्त्व पर यह पुस्तक प्रकाशित है। आगे पुण्य-पाप, आस्रव-संवर आदि तत्त्वों पर भी पुस्तक प्रकाशित करने का लक्ष्य है। जीव एवं अजीव ये दो तत्त्व प्रमुख हैं। पुण्य-पाप आदि शेष सात (तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार आस्रव, संवर आदि पाँच) तत्त्व जीव एवं अजीव के संयोग एवं वियोग से ही निष्पन्न होते हैं। जीव एवं अजीव द्रव्य भी हैं तथा 'तत्त्व' भी। तत्त्व भाव रूप होते हैं तथा द्रव्य सत् रूप। मुक्ति के लिए तत्त्व को समझना आवश्यक है, तथापि भौतिक युग में द्रव्यों की उपेक्षा नहीं की जा सकती, इसलिए इस पुस्तक में जीव एवं अजीव का वर्णन द्रव्य के रूप में ही अधिक हुआ है। विज्ञान के अनुसार संसार के समस्त पदार्थों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- १. सजीव और २. निर्जीव। जिन पदार्थों में चेतनता, स्पन्दन शीलता, श्वसन आदि क्रियाओं के साथ आहार ग्रहण करने, बढ़ने, प्रजनन करने जैसी प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं वे सजीव कहे जाते हैं तथा शेष समस्त पदार्थ निर्जीव माने गए हैं। जैन आगमों में जीव का प्रमुख लक्षण ज्ञान एवं दर्शन अर्थात् जानना एवं संवेदनशील होना है, किन्तु विज्ञान के द्वारा निर्धारित अन्य लक्षण भी जीव में स्वीकार करने में जैनागमों को आपत्ति नहीं है। परन्तु वे लक्षण संसारी जीवों पर ही लागू होंगे, सिद्ध अथवा मुक्त जीवों पर नहीं। __आगम के अनुसार जीव दो प्रकार के हैं- संसार और सिद्ध। विज्ञान के द्वारा निर्धारित लक्षण संसारी जीवों पर ही लागू होते हैं, सिद्ध जीवों पर नहीं। अभी वैज्ञानिकों को आत्म-तत्त्व अथवा शरीर से भिन्न जीव-तत्त्व का प्रतिपादन करना शेष है, क्योंकि आत्मा अरूपी एवं अपौदगलिक होने के कारण पौदगलिक प्रयोगों की पकड़ में नहीं आता, तथापि परामनोविज्ञान जैसी वैज्ञानिक शाखाएं आत्मा के अस्तित्व एवं पुनर्जन्म की सिद्धि के लिए प्रयत्नशील हैं। जीव के भेदों का जैनदर्शन में विविध रूपों में निरूपण है। गति की दृष्टि से संसारी जीव चार प्रकार के हैं- नरकगति में रहने वाले, तिर्यंचगति में रहने वाले, मनुष्यगति में रहने वाले और देवगति में रहने वाले। इन्द्रियों की दृष्टि से वे पाँच प्रकार के हैं- एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय। स्थावर एवं [20] जैनतत्त्व सार
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy