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________________ जिस जीव में जितनी पर्याप्ति होनी चाहिए जब तक उतनी पर्याप्ति पूर्ण नहीं कर पाता है, तब तक उसे अपर्याप्त कहते हैं। जब जीव अपने प्राप्त करने योग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण कर लेता है, तब वह जीव पर्याप्त कहा जाता है। जीव के लक्षण नाणं च दसणं चेव चरित्तं च तवो तहा। वीरियं उवओगो य एयं जीवस्स लक्खणं।। - उत्तराध्ययन अ. २८-११ अर्थ- ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग जिसमें हो, उसे जीव कहते हैं। ये सत्ता की अपेक्षा सब जीवों में है, परन्तु संसारी जीवों में घाति कर्मों के बंध से इन गुणों का घात होता है और कर्मों के क्षयोपशम के अनुसार इनका न्यूनाधिक प्रकटीकरण होता है। इनका विशेष वर्णन लेखक की 'बंध तत्त्व' पुस्तक में पठनीय है। जैन दर्शन में वर्णित एकेन्द्रिय जीवों के पाँच भेद प्रस्तुत पुस्तक के लेखक ने 'विज्ञान के आलोक में पृष्ठ ९ से १४२ तक जीव तत्त्व का विवेचन किया है। आत्मा का अस्तित्व का विवेचन पृष्ठ ९ से १३ तक किया है। इसके पश्चात् १. पृथ्वीकाय, २. अपकाय, ३. तेउकाय, ४. वायुकाय और ५ वनस्पति काय का विवेचन किया है। लेखक ने इनमें में से प्रथम चार भेदों की सजीवता को प्रमाणित करने का विवेचन (पृ. १४ से ३५) बीस से अधिक पृष्ठों में किया है। इसके पश्चात् वनस्पतिकाय की सजीवता का विवेचन है। वनस्पतियाँ हलते-चलते जीव-जन्तुओं, कीट-पतंगों, पशु-पक्षियों व मानवों का आहार भी करती हैं। वनस्पति-विज्ञान में ऐसी वनस्पतियों को मांसाहारी वनस्पतियाँ कहा गया है। इनके विस्तृत वर्णन से वनस्पति-शास्त्र भरे पड़े हैं। मांसाहारी-वनस्पतियाँ - इनके सर्वाधिक जंगल आस्ट्रेलिया में हैं। इन जंगलों को पार करते हुए मनुष्य इन विचित्र वृक्षों को देखने के लिए जैसे ही इनके पास जाते हैं, इन वृक्षों की डालियाँ और जटाएँ इन्हें अपनी लपेट में जकड़ लेती हैं जिनसे छुटकारा पाना सहज कार्य नहीं है। तस्मानिया के पश्चिमी वनों में होरिजिंटल स्क्रब' नामक वृक्ष होता है। यह आगन्तुक पशु-पक्षी व मनुष्य को अपने क्रूर पंजों का शिकार बना लेता है। यहाँ जीव-अजीव तत्त्व [13]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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