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________________ तथा मिथ्यादृष्टि वाले जीव का ज्ञान मिथ्याज्ञान अथवा अज्ञान है। उदाहरणार्थ बाह्म पदार्थ, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि को सुख-दुःख का कारण मानने रूप ज्ञान 'अज्ञान' है। अपने सुख-दुःख का कारण व्यक्ति स्वयं है, यह बोध ज्ञान है। इसका आदर न करने पर ज्ञान का प्रकट न होना ज्ञानावरण कर्म है। ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से सम्यग्दृष्टि जीव के सम्यग्ज्ञान एवं मिथ्यादृष्टि जीव के अज्ञान प्रकट होता है। ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण का परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध है। जिन कारणों से ज्ञान पर आवरण आता है उन्हीं कारणों से दर्शन गुण पर आवरण आता है। जीव की संवेदनशक्ति को दर्शन कहा गया है। यह संवेदनशक्ति ज्ञान की पूर्वावस्था है। पहले दर्शन होता है एवं फिर ज्ञान। गुण की दृष्टि से तो जीव में ज्ञान एवं दर्शन गुण दोनों एक साथ रहते हैं, किन्तु उपयोग की दृष्टि से इनमें क्रमभाव होता है। पूर्वाचार्यों ने दर्शन को निर्विकल्प, निराकार, अनिर्वचनीय, अविशेष, अभेद आदि विशेषताओं से युक्त बतलाया है तथा ज्ञान को सविकल्प, साकार, विशेष निर्भर करता है। दर्शन के लिए चिन्मयता, अन्तर्मुख चैतन्य जैसे शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। दर्शन को सामान्यज्ञान एवं ज्ञान को विशेषज्ञान के रूप में परिभाषित करने में वह स्पष्टता नहीं आती है जो संवेदनशीलता एवं ज्ञान से रूप में भेद स्थापित करने से आती है। दर्शन के चार प्रकार हैं-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन एवं केवलदर्शन। चक्षु की आन्तरिक ग्रहणशक्ति रूप संवेदनशीतला चक्षुदर्शन है। इस गुण पर आवरण आना चक्षुदर्शनावरण है। शरीर, जिह्व, नासिका एवं श्रोत्र इन्द्रियों की संवेदनशीलता अचक्षुदर्शन है तथा इनके इस गुण पर आवरण आना अचक्षुदर्शनावरणादि हैं तथा पाँच निद्राओं की भी इससे गणना होती है। पाँच निद्राएँ हैं- १. निद्रा २. निद्रा-निद्रा ३. प्रचला, ४. प्रचला-प्रचला एवं ५. स्त्यानगृद्धि । जो आत्मस्वरूप को, चैतन्यगुण को प्रकट न होने दे वह निद्रा है। ये पाँचों निद्राएं यही कार्य करती हैं। स्वरूप की दृष्टि से इनके भिन्न लक्षण प्राप्त होते हैं। लोढ़ा साहब ने भी इसके प्रायः वे ही प्रचलित लक्षण दिए हैं, यथाखेद, परिश्रम आदि से उत्पन्न थकावट के कारण आने वाली निद्रा, जिसमें सुगमता से जाग्रत हुआ जा सके वह निद्रा है। निद्रा में उत्तरोत्तर वृद्धि होना, निद्रा का प्रगाढ़ होना, कठिनाई से जाग्रत होना निद्रा-निद्रा है। चलायमान अवस्था में निद्रा [218] जैनतत्त्व सार
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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