SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ केवलज्ञान सबसे उत्कृष्ट ज्ञान है। समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को बिना किसी अन्य करण के सीधे आत्मा से जानना केवलज्ञान है। केवलज्ञान में द्रव्य, गुण एवं पर्याय तीनों को एक साथ जाना जाता है। केवलज्ञान अशेषज्ञान है। इसके होने के पश्चात् कुछ भी जानना शेष नहीं रहता है। वीतराग अवस्था का जो निर्देष-शुद्ध ज्ञान है, वह केवलज्ञान है। इसे अनन्तज्ञान, अभेदज्ञान एवं अशेषज्ञान भी कहा गया है। अशेषज्ञान होने से इसे सर्वज्ञता के रूप में भी जाना जाता है। ज्ञानावरण कर्म का बंध भी जीव ही करता है तथा उसका क्षय एवं क्षयोपशम भी जीव ही करता है। जीव में रही हुई आसक्ति एवं कषाय से कर्म सत्ता को प्राप्त होते हैं। आश्चर्य यह है कि कर्म जिससे सत्ता पाते हैं, उसी जीव को आवरित कर देते है और उसी जीव में उनके क्षय का ज्ञान भी होता है। जीव में उनके क्षय का ज्ञान भी होता है। जीव अविवेकजन्य अज्ञान के प्रभाव से विषय-कषाय तथा भोगों के सेवन कर ज्ञानावरण आदि कर्मों को बांध लेता है और विवेकजन्य ज्ञान के प्रभाव से विषय-भोगों का त्याग कर कर्मक्षय कर लेता है। ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण कर्म-बंध के आगमों में छह कारण प्रतिपादित हैं- १. प्रत्यनीकता २. अपलाप ३. अन्तराय ४. प्रद्वेष ५. आसादन और ६. विसंवाद। इनमें प्रत्यनीकता का अर्थ है ज्ञान के विपरीत आचारण। अपलाप का तात्पर्य है ज्ञान का प्रभव अपने पर न होने देना। अन्तराय से आशय है ज्ञान के अनरूप आचरण को भविष्य हेतु टालना। प्रद्वेष का अर्थ है प्राप्त ज्ञान के प्रति द्वेष कर भोगों को आवश्यक मनाना। आसादन का अभिप्राय है निजज्ञान का अनादर करना। श्रद्धेय लोढ़ा साहब के अनुसार इनमें ज्ञान का अनादर प्रमुख कारण है। ज्ञान के अनादर का तात्पर्य है ज्ञान को आचरण में न लाना। लोढ़ा साहब ने अनादर का अर्थ अनाचरण कर नया आयाम प्रस्तुत किया है। इससे अब तक चले आ रहे संकीर्ण अर्थ पुस्तकों के आनादर आदि की अपेक्षा एक व्यापक अर्थ को स्थान मिला है। वस्तुतः प्राप्त ज्ञान को आचरण में न लाना ही उसका अनादर है तथा उससे ज्ञानावरण कर्म के बंध का सीधा सम्बन्ध है। ज्ञान, अज्ञान एवं ज्ञानावरण में क्या भेद है? लोढ़ा साहब संक्षेप में लिखते हैं- "जिस ज्ञान से अपना हित हो, वही ज्ञान है तथा जिस ज्ञान से अपना अहित हो वह अज्ञान है।" सम्यग्दृष्टि वाले जीव का ज्ञान 'ज्ञान' अथवा सम्यग्ज्ञान है बंध तत्त्व [217]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy