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________________ दर्शन चेतना का मूल गुण है। इस गुण के विकास पर ही ज्ञान गुण का व चेतना का विकास निर्भर करता है। दर्शनगुण का विलोम जड़ता है। संवदेनशीलता पर आवरण आना अर्थात् जड़ता आना ही दर्शनावरणीय है। विशेष जानकारी के लिए लेखक की पूर्व प्रकाशित पुस्तक 'बन्ध तत्त्व' के दर्शनावरणीय कर्म अध्याय में निम्नांकित प्रकरण पठनीय है- दर्शनावरणीय कर्म के प्रकार; दर्शन-गुण का विकास-क्रम; निर्विकल्प स्थिति और निर्विकल्प अनुभूति में अन्तर; स्वसंवेदन एवं निर्विकल्पता; कामना-त्याग से निर्विकल्पता; दर्शनगुण का फल : चेतना का विकास; दर्शन-साधना की उपलब्धियाँ; दर्शनोपयोग के अभाव में ज्ञानोपयोग नहीं; दर्शन गुण एवं दर्शनोपयोग; ज्ञानगुण एवं ज्ञानोपयोग का भेद; एक समय में एक ही उपयोग; ज्ञानोपयोग : दर्शन गुण की उपलब्धि में सहायक; सम्यग्दर्शन एवं दर्शनगुण; दर्शनावरण कर्म के बंध हेतु; ज्ञान-दर्शन पर मोह से आवरण; दर्शनावरण का अन्य घाति कर्मों से सम्बन्ध। वेदनीय कर्म __ शरीर, मन एवं इनसे संबंधित अनुकूलता में सुख का और प्रतिकूलता में दुःख का अनुभव वेदनीय कर्म से होता है। सुख का अनुभव होना साता-वेदनीय और दु:ख का अनुभव होना असातावेदनीय है। जीवस्स सुह-दुक्खुप्पाययं कम्मं वेदणीयं णाम। -धवल पुस्तक 13 सूत्र 5.5 जीव के सुख और दुःख का उत्पादक कर्म वेदनीय है। वेदयति वेद्यत इति वा वेदनीयम्। -सर्वार्थसिद्धि, 8.4, वेद्यस्य सदसल्लक्षणस्य सुखदुःखसंवेदनम्। -सर्वार्थसिद्धि, 8.35 जो वेदन कराता है या जिसके द्वारा वेदन किया जाता है वह वेदनीय कर्म है। सत्-असत् लक्षणवाले वेदनीय कर्म की प्रकृति का कार्य सुख तथा दुःख का संवेदन कराना है। अक्खाणं अणुभवणं वेयणियं सुहसरूवयं सादं। तस्सोदएक्खएण दु जायदि अप्पत्थणंत सुहो॥ -धवल पुस्तक 7, पृष्ठ 14 बंध तत्त्व [179]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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