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________________ है। जितना मोह घटता जाता है, उतना ज्ञान का आवरण घटता जाता है। यही कारण है कि जीव साधना करते समय जितना मोह का उपशम व क्षय करता है, उतना ही गुणस्थान आरोहण करता जाता है और उतना ही ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता जाता है। इससे यह स्पष्ट विदित होता है कि ज्ञान के आवरण का तथा ज्ञान गुण के घटने-बढ़ने का सम्बन्ध मोह के घटने-बढ़ने से है। ज्ञान गुण की न्यूनाधिकता का सम्बन्ध बाह्य जगत् की वस्तुओं को अधिक या कम जानने से नहीं है, कारण कि गुणस्थान चढ़ते समय कोई साधक बाह्य जगत् गणित, खगोल, भूगोल आदि को अधिक जानने लगता हो तथा गुणस्थान उतरते समय इनका ज्ञान कम हो जाता हो, ऐसा नहीं होता है। तात्पर्य यह है कि बाह्य वस्तुओं, भाषा, साहित्य, विज्ञान, कला, इतिहास, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, कामशास्त्र, मनोविज्ञान, गणित, खगोल, भूगोल आदि के जानने या न जानने से ज्ञानावरणीय कर्म की न्यूनाधिकतता का अंकन व मापन नहीं किया जा सकता। आज इन विषयों का जितना विशद ज्ञान महाविद्यालय के सामान्य छात्र को है, उतना प्राचीनकाल के ख्यातिप्राप्त विद्वानों को भी नहीं था। कारण कि इसकी साधकों को आवश्यकता भी नहीं थी। यही नहीं, साधुओं को इन विषयों का अध्ययन बहिर्मुखी ही बनाता है, अन्तर्मुखी बनाने में सहायक नहीं होता है। अतः यह जिज्ञासा होती है कि फिर ज्ञानावरणीय कर्म क्या है? इसका क्षयोपशम, क्षय व बन्ध कैसे व क्यों होता है? इसी का विवेचन आगे किया जा रहा है। कर्म-सिद्धान्त में ज्ञान पर आवरण आने को ज्ञानावरण अथवा ज्ञानावरणीय कर्म कहा है। ज्ञान के पाँच भेद हैं :-1. मतिज्ञान 2. श्रुतज्ञान 3. अवधिज्ञान 4. मनःपर्यवज्ञान और 5. केवलज्ञान। विशेष जानकारी के लिए लेखक की पूर्व प्रकाशित पुस्तक 'बन्ध तत्त्व' के ज्ञानावरण कर्म अध्याय में निम्नांकित प्रकरण पठनीय है- मतिज्ञान एवं मतिज्ञानावरण; श्रुतज्ञान और श्रुतज्ञानावरण; श्रुतज्ञान से केवलज्ञान का प्रकटीकरण; श्रुतज्ञान परोक्ष क्यों?; मतिज्ञान से श्रुतज्ञान का भेद; अवधिज्ञान एवं अवधिज्ञानावरण; मन:पर्यायज्ञान एवं उसका ज्ञानावरण; केवलज्ञान और केवलज्ञानावरण; केवलज्ञान-सर्वज्ञता; कर्मक्षय का ज्ञान; त्रिपदी का ज्ञान; अनन्त ज्ञान; ज्ञानावरण कर्मबंध के कारण; ज्ञानावरण का प्रमुख कारण : ज्ञान का अनादर; ज्ञान एवं अज्ञान में भेद; ज्ञान-अज्ञान का जीवन पर प्रभाव; ज्ञानावरण और अज्ञान में भेद; ज्ञानगुण और ज्ञानोपयोग में अन्तर; ज्ञानावरण से सम्बद्ध जिज्ञासा और समाधान; ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण का क्षयोपशम और परिणाम। [176] जैनतत्त्व सार
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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