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________________ इससे जीव का जन्म क्यों, कैसे व कहाँ होता है? जन्म लेने के पश्चात् तन, मन, वचन व चेतन तथा इनसे संबंधित व्यापारों की उत्पत्ति, उसका कारण तथा निवारण आदि समस्त विषयों पर विशद प्रकाश डाला गया है। वस्तुतः कर्म सिद्धान्त जीवनशास्त्र है, जिसमें राग-द्वेष आदि बंधनों, जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, भय, पराधीनता, अभाव, तनाव, दबाव आदि दुःखों से मुक्ति-प्राप्ति का अत्यन्त सरल, सहज, सुगम मार्ग भी बताया है, जिसे मानव मात्र अपना कर सदा के लिए इन दुःखों से मुक्त होकर शरीर और संसार से अतीत के अविनाशी, अजर, अमर, जीवन एवं अक्षय, अव्याबाध, अनन्त सुख का स्वामी हो सकता है। जैन दर्शन के अनुसार कर्म आठ हैं । १. ज्ञानावरणीय कर्म, २. दर्शनावरणीय कर्म, ३. वेदनीय कर्म, ४. मोहनीय कर्म, ५. आयुष्य कर्म, ६. नाम कर्म, ७. गोत्र कर्म, ८. अन्तराय कर्म। इनका संक्षिप्त परिचय आगे दिया जा रहा है। ज्ञानावरण कर्म 'ज्ञानावरण' शब्द 'ज्ञान' और 'आवरण' इन दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है, ज्ञान पर आवरण आना। जो वस्तु विद्यमान हो उसे ढक देना, प्रकट न होने देना, आवरण है। जैसे सूर्य है, परन्तु बादलों के आ जाने से वह दिखाई नहीं देता है, उसकी प्रभा (धूप) प्रकट नहीं होती है। बादल सूर्य व उसकी प्रभा पर आवरण है। इसी प्रकार ज्ञान गुण की प्रभा प्रकट न होना अर्थात् ज्ञान का प्रभाव न होना, ज्ञानावरण है। यदि वस्तु का अभाव हो तो उस पर आवरण नहीं हो सकता। ज्ञान की विद्यमानता के अभाव में ज्ञान पर आवरण नहीं आ सकता अर्थात् प्राणिमात्र में ज्ञान सदैव विद्यमान है। वह है जीव का निज ज्ञान, स्वभाव का ज्ञान, स्वाभाविक ज्ञान। स्वाभाविक ज्ञान का अभाव जीव को कभी नहीं हो सकता। स्वभाव का ज्ञान सभी जीवों को सदैव ज्यों का त्यों रहता है, केवल उस पर आवरण आता है। ज्ञान और दर्शन- ये दोनों जीव के मुख्य लक्षण हैं, जीव के स्वभाव हैं। स्वभाव का नाश कभी नहीं होता। यदि स्वभाव का नाश हो जाय, तो वस्तु का अभाव हो जाय अर्थात् ज्ञान गुण के अभाव में जीव जीव न रहकर अजीव हो जायेगा। इसलिये जीव में ज्ञान गुण सदैव ज्यों का त्यों रहता है। उस पर न्यूनाधिक आवरण आने से उसकी प्रभा या प्रभाव न्यूनाधिक होता रहता है। ज्ञान पर आवरण होता है- मोह के कारण। अतः जितना-जितना मोह घनीभूत होता जाता है, उतना-उतना ज्ञान को ढकने वाला आवरण भी घनीभूत होता जाता बंध तत्त्व [175]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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