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________________ बंध तत्त्व बंध तत्त्व का स्वरूप बंध-तत्त्व में कर्मबंध से संबंधित वर्णन है। कर्म-बंध की परिभाषा करते हुए कर्मग्रन्थ के प्रथम भाग में कहा है "कीरइ जिएण हेउहि, जेणं तो भण्णए कम्म।" (गाथा 1) जीव के द्वारा मन, वचन, काया की कषाय आदि हेतुओं से जो क्रिया की जाती है, उसे कर्म कहते हैं अर्थात् जीव द्वारा कषाययुक्त प्रवृत्तियों के कारण से जो आत्म-प्रदेशों में परिस्पंदन होता है, जिसके आकर्षण से आत्मा से भिन्न पुद्गल (कार्मण वर्गणा) चुम्बक की तरह आकर्षित होकर आत्म-प्रदेशों से सम्बद्ध व एकरूप हो जाते हैं, इसे ही कर्म-बंध कहते हैं। आशय यह है कि इन्द्रिय, मन आदि से जो क्रिया की जाती है, उससे कर्मबंध होता है और जो क्रिया स्वतः होती है, उससे कर्म-बंध नहीं होता है। कारण कि करने में क्रिया या प्रवृत्ति का राग और सुख पाने रूप फल की इच्छा होती है अर्थात् कर्तृत्व-भोक्तृत्व भाव होता है, इससे उस क्रिया का प्रभाव आत्म-प्रदेशों पर, अंत:करण पर अंकित होता है और स्थित रहता है, यही कर्म-बंध है अथवा यों कहें कि इन्द्रियों की विषय में प्रवृत्ति दो प्रकार की होती है- 1. स्वयं के द्वारा की जाने वाली और 2. स्वतः होने वाली । उदाहरणार्थ- 1. चक्षु इन्द्रिय से किसी सुन्दर दृश्य को देखने की रुचि होना और उस सुंदरता से सुख भोगने के लिए प्रवृत्ति करना तथा सुख का भोग करना। इससे उसका प्रभाव अंकित होना, संस्कार निर्माण होना कर्म-बंध है तथा 2. नयन खोलने से अनेक दृश्यों का दिखाई देना, परन्तु उनसे सुख [150] जैनतत्त्व सार
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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