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________________ यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि आस्रव और संवर दोनों परस्पर में विरोधी है तथा निर्जरा और बंध ये दोनों भी परस्पर में विरोधी हैं। इन विरोधियों का धर्मध्यान व शुक्लध्यान में एक होना कहा गया है, यह कैसे संभव है? इसका समाधान यह है कि यहाँ आस्रव व बंध में शुभास्रव और शुभानुबंध को ही लिया ही लिया गया है, शुभ कर्मों के संवर व निर्जरा को नहीं लिया गया है। कारण कि धर्मध्यान आदि समस्त साधनाओं से आत्म-विशुद्धि होती है, आत्मा पवित्र होती है, जिससे पुण्य का आस्रव तथा पुण्य का अनुबंध होता है। जिस समय जिस पुण्य कर्मप्रकृति का आस्रव व अनुबंध होता है उस समय उसकी विरोधिनी पाप कर्मप्रकृति के आस्रव का निरोध अर्थात् संवर हो जाता है तथा पाप प्रकृतियों की निर्जरा (क्षय) होती है। पुण्य का आस्रव चार अघाती कर्मों का ही होता है। इनमें से आयु कर्म को छोड़कर शेष वेदनीय, गोत्र व नाम कर्म की प्रकृतियों में शुभ अथवा अशुभ दोनों में से किसी एक का आस्रव व बंध निरंतर होता रहता है। अतः जब सातावेदनी, उच्च गोत्र, शुभ गति व आनुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, वज्रऋषभनाराच संहन्न, समचतुरस्त्र संस्थान, शुभ वर्ण-गंध-रस स्पर्श, शुभविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, शुभ, स्थिर सुभग, आदेय और यशकीर्ति इन पुण्य प्रकृतियों का आस्रव एवं अनुबंध होता है तब इनकी विरोधिनी पाप कर्म प्रकृतियों असातावेदनीय, नीच गोत्र, अशुभ गति व आनुपूर्वी, अशुभ संहनन-संस्थान वर्ण-गंध-रस-स्पर्श, अशुभ विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अशुभ, अस्थिर, दुर्भाग्य, अनादेय और अयशकीर्ति के आस्रव का निरोध अर्थात् संवर हो जाता है। बंध रुक जाता है तथा सत्ता में स्थित पाप प्रकृतियों की स्थिति व अनुभाग का अपवर्तन रूप क्षय (निर्जरा) होता है। अतः समस्त साधनाओं से होने वाली आत्म-विशुद्धि से शुभास्रव-शुभानुबंध होता है और अशुभ (पाप) प्रकृतियों का संवर व निर्जरा होती है। अतः साधक के लिये पाप प्रकृतियों का संवर व इनकी निर्जरा ही इष्ट है, जब आत्म-विशुद्धि से पाप प्रकृतियों का संवर व निर्जरा होती है तब पुण्य प्रकृतियों का आस्रव व अनुबंध स्वतः ही होता है। __ अतः पुण्यास्रव का निरोध व पुण्य कर्मों के अनुभाग के अनुबंध का क्षय व निर्जरा किसी भी साधक के लिए अपेक्षित नहीं है और न किसी भी साधना से संभव ही है। प्रत्येक साधना से पुण्यास्रव व पुण्यानबंध में वृद्धि ही होती है। इसलिए पुण्य के आस्रव के निरोध को संवर में और पुण्य कर्मों के अनुभाग बंध के क्षय को निर्जरा में ग्रहण नहीं किया है, क्योंकि पुण्यकर्म का संवर और अनुभाव [140] जैनतत्त्व सार
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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