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________________ ते य विसेसेण सुभावादओऽणुत्तरामरसुहं च। दोण्हं सुक्काण फलं परिनिव्वाणं परिल्लाणं ।।१४।। आसवदारा संसारहेयवो जंण धम्म-सुक्केसु। संसारकारणाइं तओ ध्रुवं ण धम्मसुक्काई।।१५।। संवर-विणिजराओ मोक्खस्स पहो तवों तासिं। झाणं च पहाणगं तवस्स तो मोक्खहेउयं ।।१६।। अर्थात्-उत्तम धर्मध्यान से शुभास्रव (पुण्य कर्मों का आगमन) संवर (पापासव का निरोध) निर्जरा (संचित कर्मों का क्षय) तथा अमर (देव) सुख मिलते हैं एवं शुभानुबंधी (पुण्यानुबंध) विपुल फल मिलते हैं।। १३ ।। धर्मध्यान के फल शुभास्रव, संवर, निर्जरा और अमरसुख इनमें विशेष रूप से उत्तरोत्तर वृद्धि होना प्रारंभ के दो शुक्ल ध्यान (पृथवक्त्व वितर्क सविचार और एकत्व वितर्क अविचार) का भी फल है। अंतिम दो शुक्ल ध्यान सूक्ष्मक्रिया अनिवृत्ति और समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाति का फल मोक्ष की प्राप्ति है।। १४ ।। जो मिथ्यात्व आदि अशुभ आस्रवद्वार संसार के कारण हैं वे चूंकि धर्मध्यान और शुक्लध्यान में संभव नहीं हैं इसलिये यह ध्रुव नियम है कि ये संसार के कारण नहीं हैं, किन्तु संवर और निर्जरा ये मोक्ष के मार्ग हैं उनका पथ तप है और उस तप का प्रधान अंग ध्यान है। अतः ध्यान मोक्ष का हेतु है। (गाथा ९५-९६) ध्यान के अतिप्राचीन एवं प्रामाणिक ध्यानशतक ग्रन्थ के रचनाकार जैन जगत के विख्यात महार्षि श्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण एवं वृत्तिकार श्री हरिभद्रसूरि हैं। जैन धर्म की दोनों सम्प्रदायों में इस ग्रंथ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस ग्रंथ की उपर्युक्त गाथाओं से निम्रांकित तथ्य प्रकट होते है। गाथा ९३-९४ में श्रेष्ठध्यान- धर्मध्यान का प्रतिपादन करते हुये कहा है कि धर्मध्यान से (१) आस्रव (२) संवर (३) निर्जरा (४) बंध और (५) देवसुख होता है और गाथा ९३ में इसे मोक्ष का हेतु भी कहा है। पृथक्त्व वितर्क सविचार शुक्ल ध्यान जो उपशम कषाय वाले साधु के होता है तथा एकत्व वितर्क अविचार शुक्ल ध्यान जो क्षपक कषाय वाले साधु के होता है, इन दोनों शुक्लध्यानों का फल भी धर्मध्यान से होने वाले शुभास्रव, संवर, निर्जरा व मोक्ष का होना कहा है। निर्जरा तत्त्व [139]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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