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________________ ७६ आध्यात्मिक और सामाजिक पाप है : अध्यात्म नारी मनुष्य का आदि गुरु है, जिसकी शिक्षा-सीढ़ियों से मानव का शशव सदा विकास के डण्डे पार करता आया है। भगवान महावीर की प्रवचन सभा को आगमों की भाषा में समवसरण कहा जाता है, उसमें किसी भी प्रकार की असमानता या विषमता नहीं होती थी। वहां ऊंच-नीच का भेदभाव तहीं था, अमीर-गरीब पर एक समान समता की बृष्टि होती थी । सबके साथ भ्रातृभाव का व्यवहार चलता था । मनुष्य तो क्या हिंसक पशु भी अपनी हिंसक भावना भूल कर प्रेम-सरोवर में डूबने लगते थे। भगवान के समवसरण में समता ही समता दृष्टिगोचर होती थी । क्यों न हो, समता के दिवाकर भगवान महावीर के पास विषमता का अन्धकार कैसे टिक सकता था ? अनेकान्तवाद-- संसार में दो तरह के व्यक्ति पाए जाते हैं। एक ऐसा है 'जो कहता है कि जो मेरा है, वह सत्य है । उस का विचार है कि मेरी बात कभी गल्त नहीं हो सकती, मैं जो कहता हूँ, वह सवा सोलह आने सत्य है और जो दूसरा कहता है वह सर्वथा झूठ है, गल्त है । दूसरे व्यक्ति का विश्वास है कि जो सत्य है, वह मेरा है । उस की धारणा है कि मुझे अपनी बात का कोई आग्रह नहीं है । मैं तो सत्य का पुजारी हूं, मुझे सत्य चाहिए। मैं किसी को झूठा नहीं कहता और 'जो मेरा है वही सत्य है ऐसा भी मैं नहीं कहता । मैं तो 'जो सत्य है वह मेरा है' ऐसा मानता हूं और वह सत्य जहां कहीं से भी प्राप्त हो जाए वहीं से लेने को तैयार हूँ। भगवान महावीर की दृष्टि में पहला एकान्त-बादी है और दूसरा अनेकान्त वादी।
SR No.022854
Book TitleDipmala Aur Bhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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