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आधुनिक हिन्दी - जैन साहित्य
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अगम - सी रहती है, लेकिन शैली अपने सौंदर्य के कारण पाठक को सर्वथा आकर्षक लगती है। " श्री वीरेन्द्र कुमार की शैली की यह विशेषता है कि वह अत्यन्त संवेदनशील है। पात्रों के मनोभावों और भावनाओं के घात - प्रतिघात के अनुरूप यह प्रकृति का चित्र उपस्थित करते जाते हैं। लगता है जैसे अन्तर की गूंज जगत में छा गई है, हृदय की वेदनाएँ चाँद, सूरज, फल- - फूलों में रमकर चित्र बनकर प्रकृति की चित्र शाला में आ रंगी हो । उनकी काव्यात्मक, अलंकृत शैली के उदाहरण पृष्ठ - पृष्ठ पर बिखरे पड़े हैं। गद्य में भी इतनी काव्यात्मकता लाना वीरेन्द्र जी की निपुणता है । पवनंजय - अंजना के परिणय की बेला में देखिए- ' आज है परिणय की शुभ लग्न - तिथि । पूर्व की उन हरित-श्याम-शैल श्रेणियों के बीच ऊषा के आकुल वक्ष पर यौवन का स्वर्ण कलश भर आया है।' श्री वीरेन्द्रकुमार के स्वभाव में ध्वनि और वर्णन का सहज सम्मोहन है। अनेक छोटे-छोटे वाक्यों में उन्होंने स्पर्श, रस, वर्ण, गन्ध और ध्वनि की अनुभूतियों को सरल लेखनी में उतारा है-यथा
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(1) 'नारिकेल-शिखरों पर वसन्त के सन्ध्याकाश में गुलाबी और अंगूरी बादलों की झीलें खुल पड़ीं।
(2) संघों में से आई हुई कोमल धूप के धब्बे कहीं-कहीं बिखरे हैं, जैस इस कोमल सुनहरी लिपि में कोई आज्ञा का सन्देश लिख रहा है।
(3) प्राण की अनिवार पीड़ा से वक्ष अपनी संपूर्ण मांसल मृदुता और माधुर्य में टूट रहा है, टूक-टूक हुआ जा रहा है।
(4) सू
सू.... करती तलवार की विकलता पृथ्वी की ठंडी और निचिड़ गन्ध में उत्तेजित होती गई शून्य में कहीं भी घाव नहीं हो सका है- मात्र यह निर्जीव खम्भे के पत्यारों का अवरोध टकरा जाता है। उन्न ठन्न .?'
लेखक की भाषा - शैलीगत यह विशेषता ही कही जायेगी कि उन्होंने विविध भावों, विचारों के अनुरूप शब्दों को काटा है, गढ़ा है एवं सशक्त शैली में अभिव्यक्त किया है। विचार मग्न अंजना का चित्र खींचने के लिए उन्होंने कैसी नीरव, आहटहीन शैली का प्रयोग किया है- 'शेष रात के शीर्ष पंखों पर दिन उतर रहा है। आकाश में तारे कुम्हला गये हैं। मान सरोवर की चंचल लहरियों में कोई अदृष्ट बालिका अपने सपनों की जाली बुन रही है। और एक अकेली हंसिनी, उस फूटते हुए प्रत्यूष में से पार हो रही है। वह नीरव हंसिनी, उस गुलाबी आलोक-स - सागर में अकेली ही पार हो रही थी। वह क्यों है आज 1. मुक्तिदूत - आमुख, पृ० 14.