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________________ 436 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य 'दोहरे के विषम चरणों में 13-13 और सम में 11-11 मात्राएं होती हैं। (अन्त में डा रहता है)। विषय का निर्माण अष्टक चौकाल और सम का अष्टका-त्रिकल से होता है, जबकि दोहे का विषय चरण उल्लाला (सम) का और सम अहिर का चरण होता है।' 'वीरायण' में कहीं-कहीं एक चौपाई के बाद और कहीं-कहीं दो चौपाई के बाद दोहरा छन्द प्रयुक्त हुआ है। दोहे के विषम चरण के अन्त में एक मात्रा कम कर देने से 'दोहरा' होता है। आचार्य 'भानु' ने इसे शास्त्र-नियम के विरुद्ध माना है। पर यह अपभ्रंश छन्दशास्त्र 'कवि दर्पण' द्वारा उपदोहक है, जिसे आचार्य भिखारीदास ने 'दोहरा' कहा है। 'वीरायण' के प्रत्येक काण्ड के अंत में पांच-छ: दोहरों का क्रम रहा है। उसी प्रकार काण्ड के प्रारंभ में भी तीन-चार दोहरा छन्द या सोरठा छन्द का प्रयोग हुआ है। दोहरे का दृष्टान्त देखिए माया बंधन मनुज को, अकरावत बल बोर। कठिन काष्ट छेदत अली, पंकज सकत न तोर॥ 3-463 तामें बुधजन अति प्रबल, माया मोह कहत। कीर्ति की रति ना करे, सो जीते इन संत॥ 3-464 जन्म, लगन संयम ग्रहण, वर्धमान इतिहास। गुरुवर कृपा हुँते कथे, प्रेम सहित मूलदास। 3-467 'वीरायण' में कहीं-कहीं दोहरा के स्थान पर 'सोरठा' छन्द का प्रयोग भी प्राप्त है। वैसे भी बहुत से जैन कवियों ने सोरठा छन्द का प्रयोग दोहे के स्थान पर किया है। सोरठा दोहे का उल्टा छंद है, जिसके विषम में 11 और सम में 13-13 मात्राएं होती है। सोरठा में विषम चरण तुक रहता है और समचरण बेतुका। 'वीरायण' में चतुर्थ काण्ड के प्रारंभ में पार्श्वनाथ सरस्वती वंदना में सोरठा छन्द का प्रयोग सुंदर रूप से हुआ है और सूक्ति के प्रयोग में भी सोरठा का मार्मिक रूप देखा जा सकता है-यथा पर पीडन सम पाप, अवरन होता अवनि में। होत सबकु संताप, यहाँ न ठहरत संतजम। 4-123 समस्त सकल विदेश, पार्श्वनाथ प्रभु तुम चरन। गावत गति हमेश, ग्रन्थारमे मुनि जनौ। आवत आप ही आप, बल-बुद्धि सिद्धि सकल। तुमरे भजन प्रताप, मनवांछित फल मिलत है।।2।। महावीरायन ग्रंथ, कर समरन तब सरसती। यथामती आरंभ, करन चहो करुना करहु॥3॥ 1. डा. गौरीशंकर मिश्र-छन्दोदर्पण,पृ० 140.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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