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________________ 8 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य को निकटता से देखा-परखा, तदनन्तर उस पर गंभीर मनन-मंथन कर उन्होंने घोषित किया कि मनुष्य अपने कर्मों से ऊंच-नीच बन सुख-दुःख प्राप्त करता है, जाति भेद व वर्ग भेद तो ढकोसला मात्र है । सभी मनुष्य में समान आत्मा का बसेरा होने से सुख-दुःख से सब समान मात्रा में प्रभावित होते हैं। अतः सभी का ध्येय 'मानवतावादी' होना चाहिए। सबके प्रति करुणा एवं सौहार्द से व्यवहार करना आवश्यक है। जातिवाद या सम्प्रदायवाद तो किसी भी समाज के लिए कलंकरूप है। महावीर के प्राणीमात्र के प्रति पूर्णतः अहिंसा के संदेश में समानता का ही तत्व निहित है। मानव-मानव के बीच समान व्यवहार को वे सामाजिक स्वस्थता, शुद्धता एवं विकास के लिए परमोपयोगी स्वीकारते थे। इसीलिए तो विश्व-बन्धुत्व की भावना का हार्द वे समझा पाये और इसी के आचरण पर संपूर्ण जोर दिया। महान समन्वयकारी और चिंतक महावीर की संसार को यह अनुपम देन कही जायेगी कि उन्होंने धर्म का सच्चा स्वरूप मानव-मानव की समानता एवं समताभाव के तत्व में निरूपित किया, और इसी का प्रचार-प्रसार किया। प्राणी मात्र का वे कल्याण एवं अभ्युत्थान ही चाहते थे। मनुष्य मात्र को 'आत्मवत्' समझने की विचारधारा का ही संदेश महावीर ने दिया और यही श्रमण-परम्परा की विशिष्टता है। 'दार्शनिक अव्यवस्था के भीतर व्यवस्था को तथा धार्मिक संदेहवाद के भीतर श्रद्धा की प्रकृष्ट प्रतिष्ठा करने के कारण जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म जनता के प्रिय पात्र बने।' महावीर ने जैन धर्म को बोधगम्य और लोकप्रिय बनाने के लिए उसे केवल सिद्धान्तों तक सीमित न रखकर आचार प्रधान बना कर विशाल सामाजिकता तथा व्यावहारिकता का समन्वयकारी रूप प्रदान किया। अतः उन्होंने मानव-मानव के बीच प्रेम, सद्भाव एवं सहानुभूति पूर्ण सद्व्यवहार का प्रचार किया, क्योंकि समभाव की साधना ही व्यक्ति को सच्चा श्रमण बना सकती है। महावीर ने मनुष्य की समानता पर किसी जाति, वाद, धर्म या सम्प्रदाय का 'लेबील' (Label) नहीं चिपकाया, सभी के लिए उनके द्वार खुले थे। सामाजिक चेतना को जागृत करने के लिए उन्होंने मानव-महिमा तक पूर्ण अहिंसा का जो जोरदार समर्थन किया वह उनकी अनुपम उदार दृष्टि का परिचायक है। धर्म और दर्शन का वैज्ञानिक स्वरूप सदा स्वीकार्य होना चाहिए, ऐसा उन्होंने चिन्तन कर प्रतिपादित किया। क्योंकि सामाजिकता तथा मानवीयता के परे धर्म का अस्तित्व ठोस नहीं हो सकता और समानता की स्थापना के 1. हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास-सं० डा. राजबली पांडेय, द्वितीय खण्ड-द्वितीय अध्याय-जैनधर्म-पृ. 439
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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