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________________ 134 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य तरह परिचित होता है, क्योंकि अपने धर्म के विषय में जानकारी प्राप्त करने के हेतु प्रत्येक परिवार स्वभाषा में दार्शनिक ग्रन्थ एवं निबंध-संग्रहों को स्थान देता है। दार्शनिक विचार प्रधान निबंध लिखनेवालों में प्रज्ञचक्षु पं० सुखलालजी संघवी का स्थान आदरणीय एवं सम्माननीय है। 'योगदर्शन' एवं 'योगविशंतिका' में दर्शन और इतिहास का तुलनात्मक शैली में परिचय मिलता है। 'जैन-साहित्य की प्रगति', 'भगवान महावीर का आदर्श जीवन' में ऐतिहासिक तथ्यों व घटना-क्रमों का पूर्ण ख्याल रखा है। दार्शनिक निबंधों के अतिरिक्त आपने सांस्कृतिक निबंध भी लिखे हैं, जिनकी भाषा परिमार्जित और शैली प्रवाहपूर्ण है। थोड़े में बहुत कुछ प्रतिपादित कर देने की आपकी संश्लिष्ट शैली है। जैन दर्शन के साथ बौद्ध-दर्शन के भी मर्मज्ञ ज्ञाता हैं। अभी थोड़े दिन पहले ही उनका स्वर्गवास होने से न केवल जैन-साहित्य बल्कि समग्र हिन्दी साहित्य वाणी के ऐसे विद्वान वरद् साहित्यकार से वंचित हो गया। पं० शीतलप्रसाद जी इस काल के पथ प्रदर्शक निबंधकार के रूप में सम्मान के अधिकारी हैं। आपने इतना अधिक लिखा है कि इन सबके संकलन से जैन पुस्तकालय खड़ा हो सकता है। पण्डित राहुल सांस्कृत्यायन की नियमित रूप से कुछ न कुछ लिखते रहने की वृत्ति पंडित जी में विद्यमान थी। दर्शन और इतिहास दोनों पर ही असंख्य मात्रा में निबंध लिखे हैं। ऐसा कोई विषय नहीं, जो आपकी नजर से बच गया हो। निबंधों की तरह आप यदि उपन्यास क्षेत्र में भी कलम चलाते तो अवश्य ही जैन साहित्य का भण्डार भर जाता। ___पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री दार्शनिक आचारात्मक एवं ऐतिहासिक निबंध लिखने वालों में हैं। 'न्याय कौमुद चन्द्रावली' की प्रस्तावना-जो कि दार्शनिक विकास क्रम का ज्ञान भण्डार है-जैन साहित्य की अमूल्य निधि कही जाती है। स्याद्वाद, सप्तभंगी, अनेकान्तवाद की व्यापकता और चरित्र, शब्द नय, महावीर और उनकी विचारधारा आदि निबंध अपना विशेष स्थान रखते हैं। जैन धर्म' और 'जैन साहित्य का इतिहास' (तीन भागों में) अत्यन्त शिष्ट-संयम भाषा शैली में दार्शनिक सिद्धान्तों एवं जैन साहित्य के क्रमिक विकास का विवेचन करते हुए मौलिक ग्रन्थ हैं। इसी प्रकार 'तत्पार्थ सूत्र' पर लिखा दार्शनिक विवेचन भी प्रशंसनीय तथा ज्ञानवर्द्धक है। इनकी शैली और विद्वता की तुलना हम आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी से कर सकते हैं। दोनों की शैली में विचारों की गंभीरता, अन्वेषणात्मक चिन्तन, परिपक्वता एवं अभिव्यंजना की स्पष्टता समान रूप से पाते हैं। पं० दलसुखभाई मालवणिया जी ने दार्शनिक निबंधों का सर्जन कर हिन्दी
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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