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________________ 5 बौद्ध धर्म एवं दलित चेतना रमेन्द्र कुमार मिश्र ईसा पूर्व छठी शताब्दी का काल धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक दृष्टि से क्रान्ति अथवा महान् परिवर्तन का काल माना जाता है। इस समय परम्परागत वैदिक धर्म एवं समाज में व्याप्त कुप्रथाओं एवं कुरीतियों के विरूद्ध एक सकारात्मक प्रतिक्रिया हुई, जिसमें कतिपय नवीन विचार धाराओं को जन्म दिया। जैन एवं बौद्ध धर्म का अभ्युदय एवं उत्थान तत्कालीन मूल्यों एवं मान्यताओं की प्रतिक्रिया के सन्दर्भ में ही देखा जाना चाहिये। यह प्रतिक्रिया कोई आकस्मिक घटना नहीं थी, वरन् यह चिर काल से संचित हो रहे असंतोष एवं कुण्ठा की ही चरम परिणति थी। इस युग में उत्पन्न सभी विचारधाराओं में केवल एक ही भारतीय संस्कृति के कलेवर में अधिक गहराई तक समा सकी और वह थी बौद्ध की संचेतना । बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध के विषय में बार्थ महोदय का यह कथन अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि बुद्ध का व्यक्तित्व शान्ति और माधुर्य का सम्पूर्ण आदर्श है। वह अत्यन्त कोमलता, नैतिक स्वतंत्रता की साक्षात मूर्ति है ।' तथागत का व्यक्तित्व अलौकिक एवं दिव्य था । उनके व्यक्तित्व की प्रतिभा के प्रकाश से अत्यन्त क्रूरकर्मी पापियों का भी हृदय परिवर्तित हुआ । बुद्ध का अथाह हृदय मानव प्रेम एवं करुणा से ओत प्रोत था । प्राणियों के विविध दुःखों एवं कष्टों को देखकर उनका हृदय करायह उठता था। दूसरों के दुःखों से दुःखी होना उनकी विशेषता थी। उनकी यही संवेदनाशीलता ही वह मूल बिन्दु है जिसने उनके भावी लक्ष्य का निर्धारण किया । इन्हीं दुःखों के निराकरण के अन्वेषण में उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन को समर्पित कर दिया और अन्ततः
SR No.022848
Book TitleAacharya Premsagar Chaturvedi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjaykumar Pandey
PublisherPratibha Prakashan
Publication Year2010
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size36 MB
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