SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 433
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म में सामाजिक चिन्तन में जीवों का विनाश पाप उत्पन्न करता है। अग्नि, प्रज्वलन तथा जल-मज्जन केवल बाहर शुद्धता प्रदान कर सकता है। जन्म से निर्धारित वर्ण व्यवस्था को अस्वीकार कर इन्होंने कर्म को ही वर्ण तथा जाति का आधार माना है । कर्म से ही कोई ब्राह्मण होता है और कर्म ही युक्ति क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र होता है । ' महापुराण में कहा गया है कि जो शास्त्र धारण कर आजीविका करते थे वे वैश्य कहलाये और जो इन (क्षत्रिय एवं वैश्य) के सेवा सुश्रूषा करते थे उन्हें शूद्र की संज्ञा दी गयी । नैतिक आचरण को आधार मानकर महावीर स्वामी ने कहा " जो अग्नि में तपाकर शुद्ध किये और घिसे गये सोने की भाँति पाप-मल से रहित है और जो राग-द्वेष और भय से मुक्त है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। " 401 जैन आचार्य इस बात को स्वीकार नहीं करते हैं कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से, भुजा से, उदर तथा पैर से हुई । धर्मशास्त्र एवं पुराणों के सर्वथा अनुकूल है अर्थात् ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, बाहुओं से क्षत्रिय, उरूओं से वैश्य तथा पैर से शूद्र इन चार वर्णों की उत्पत्ति बतायी गयी है । पद्यपुराण तथा हरिवंश पुराण में वर्णित है कि ऋषभदेव ने सुख-समृद्धि के लिए समाज में सुव्यवस्था लाने की चेष्टा की गयी थी और इस व्यवस्था के फलस्वरूप क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र ये तीन वर्ण उत्पन्न हुए । ऋषभदेव ने जिन पुरूषों को विपत्ति द्वारा ग्रस्त, मनुष्यों के रक्षार्थ नियुक्त किया था, वे अपने गुणों के कारण लोक में 'क्षत्रिय' नाम से प्रसिद्ध हुए, जिसको वाणिज्य, खेती एवं पशुपालन आदि व्यवसाय में लगाया गया था । वे वैश्य कहलाये तथा जो नीचकर्म करते थे तथा शास्त्र से दूर भागते थे उन्हें शूद्र की संज्ञा प्रदान की गयी थी। इनका विचार है कि व्यक्ति मनुष्य योनि से ही उत्पन्न है। उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्टतः कहा गया है कि पूर्व कर्मों के कारण व्यक्ति का उच्च कुल में जन्म होता है। जैन साहित्य में वर्ण को परिवर्तनीय बताया गया है। नैतिक साधना के द्वारा जैन धर्म में सभी के लिए समानरूप से खुला था । आचारांग सूत्र में धनी व निर्धन सभी वर्ग के लोगों के लिए समान उपदेश है। जैन विचार के अनुसार चारों वर्ण के लोग श्रवण- परम्परा में प्रवेश पा सकते 1 थे । धर्मशास्त्रों में वैश्यों के लिए कृषि, पशु-पालन और व्यापार जैसे व्यवसाय
SR No.022848
Book TitleAacharya Premsagar Chaturvedi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjaykumar Pandey
PublisherPratibha Prakashan
Publication Year2010
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy