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________________ 36 जैन दर्शन एवं संस्कृत साहित्य - शास्त्र मधु सत्यदेव भारत ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में अहिंसा और करुणा के क्षेत्र में जिस दर्शन के साथ 'चरम' और 'अति' का प्रयोग प्रायः किया जाता रहा है वह जैन दर्शन एवं धर्म है। मनुष्य ही नहीं बल्कि अत्यन्त सूक्ष्म जीवों चीटियों एवं कीटाणुओं के जीवन का ध्यान रखने एवं उन्हें मृत्यु से बचाने के लिये जिस कठोर जीवन यापन का निर्देश जैन जीवन पद्धति में मिलता है उससे इसको सहज ही 'अव्यावहारिक' होने का आरोप भी झेलना पड़ा है ।' किन्तु इसकी चिन्ता किये बिना जैन तीर्थंकरों और उनके अनुयायियों ने भारत और भारत से बाहर भी निरन्तर अपनी करुणा और अहिंसा की भावना को फैलाया । इसके लिए अपनी लेखनी को भी साधन बनाया। लेखनी ने संस्कृत भाषा को भी समृद्ध किया । इसवी सन् की द्वितीय सदी से संस्कृत वाङ्मय में जैन काव्य लेखन का प्रारम्भ हुआ। जैन संस्कृत काव्य अनेक जन्मों के द्वारा व्यक्तित्व के उदय तथा सम्पूर्णता को लक्ष्य कर नाना जन्मों की कथा सुनाते हैं। जैन काव्यों ने अपने धर्म की अभिवृद्धि के लिए ही काव्य का आश्रयण किया इसलिए अवसर मिलने पर उन्होंने ब्याज, संयम तथा अहिंसा के आदर्श की व्याख्या के विभिन्न उपदेश दिये हैं। जैन काव्यों में जैन धर्म के उपदेष्टा तीर्थंकर धार्मिक पुरुष और लोकोपकारी व्यक्तियों को नायक बनाया गया है। जैन काव्यों में जैन तत्त्वों की शिक्षा का अवश्य समावेश होता है । वराङचरित जिनसेन - पार्श्वभ्युदय काव्य, जिदन्तचरित, वर्धमानचरित, चन्द्रप्रभाचरित, क्षत्रचूड़ामणि आदि जैन काव्यों में उपरोक्त विशेषतायें देखी जा सकती हैं। जैन काव्य जैन तत्त्वों का दर्पण है। स्पष्टतः
SR No.022848
Book TitleAacharya Premsagar Chaturvedi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjaykumar Pandey
PublisherPratibha Prakashan
Publication Year2010
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size36 MB
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