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________________ 29 जैन धर्म में कर्म सिद्धान्त राम प्रताप राज भारतीय धर्म दर्शन तथा तत्त्व चिन्तन में कर्म सिद्धान्त सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। जीवन के विविध आयामों में कर्म सिद्धान्त का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। यद्यपि भारत के सभी दार्शनिक शाखाओं में कर्म सिद्धान्त को प्रस्तुत किया है। तथापि जैन परम्परा में जैन आचार्यों ने कर्म सिद्धान्त का जो स्वरूप प्रस्तुत किया है वह सभी चिन्तकों से विशिष्ट है कर्म सिद्धान्त का हेतु- मोहन लाल मेहता ने जैन कर्म सिद्धान्त को प्रतिपादित करते हुए यह प्रस्तावना प्रस्तुत की कि प्रत्येक क्रिया का कोई न कोई फल अवश्य होता है। इसे कार्य कारण भाव अथवा कर्मफल भाव कहते है क्योंकि प्राणियों के कर्म जन्य अनेक विचित्रताएँ पायी जाती है। इन विचित्रताओं में सुख दुःख का विशेष स्थान है। अतः जिस हेतु कर्म किया जाता है। वही सुख दुःख का कारण होता है। सुख दुःख रूपी कार्य का जो कारण है वही कर्म है। अर्थात् सुख दुःख का दृष्टि कारण होता है तो कर्म रूप का दृष्टि कारण का अस्तित्व मानने का कोई आवश्यकता नहीं है। अतः जैन धर्म में दृष्ट अदृष्ट कारणों में अदृष्ट कारण का तारतम्य बना रहता है। जिसका फल कर्म होता है। जैन दर्शन कर्म को पुद्गल परमाणुओं का पिण्ड मानता है। जीवों की विविधता का मूल कारण ही कर्म है। जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि है, जो पुति परमाणु कर्म रूप से परिणत होते है, उन्हें कर्म-वर्गणा कहते हैं तथा जो शरीर रूप से परिणत होते है, उन्हें नो कर्म-वर्गण कहते है। कर्म और प्रवृत्ति के इस कार्य कारण भाव को दृष्टि में रखते हुए पुद्गल परमाणुओं के
SR No.022848
Book TitleAacharya Premsagar Chaturvedi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjaykumar Pandey
PublisherPratibha Prakashan
Publication Year2010
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size36 MB
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