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________________ 28 जैन शिक्षा व्यवस्था में गुरु शिष्य सम्बन्ध पूर्णेश नारायण सिंह एवं जय प्रकाश मणि अनन्त सदाशिव अल्तेकर ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'प्राचीन भारतीय शिक्षा' में लिखा है कि जैन शिक्षण पद्धति का उद्देश्य था चरित्र का संगठन, व्यक्तित्व का निर्माण, सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों को सम्पन्न करने के लिए उदीयमान पीढ़ी का प्रशिक्षण और कैवल्य की प्राप्ति, गुरु शिष्य के सम्बन्धों से होती थी। अध्यापक बहुत आदर की दृष्टि से देखे जाते थे। जैन सूत्रों में तीन प्रकार के आचार्यों का उल्लेख है - कलाचार्य, शिल्पाचार्य, और धर्माचार्य । कलाचार्य और शिल्पाचार्य के सम्बन्ध में कहा है कि उनका उपलेपन और संदर्भन करना चाहिये, उन्हें पुष्प समर्पित करने चाहिये, तथा स्नान कराने के पश्चात् उन्हें वस्त्राभूषणों से मंडित करना चाहिये। तत्पश्चात् भोजन आदि कराकर जीवन-भर के लिए प्रतिदिन देना चाहिये तथा पुत्र-पौत्र तक चलने वाली आजीविक का प्रबन्ध करना चाहिये। धर्माचार्य को देखकर उनका सम्मान करना चाहिये और उनके लिए भोजन आदि की व्यवस्था करनी चाहिये।' यदि वे किसी दुर्भिक्ष वाले प्रदेश में रहते हो तो उन्हें सुभिक्षु देश में ले जाकर रखना चाहिये, कांतार में से उनका उद्धार करना चाहिये तथा दीर्घकालीन रोग से उन्हें मुक्त करने की चेष्टा करनी चाहिये। इसके साथ ही अध्यापकों में भी विद्यार्थियों को शिक्षा देने के लिए पूर्ण योग्यता होनी चाहिये। जो प्रश्न विद्यार्थियों को शिक्षा देने के लिए पूर्ण योग्यता होनी चाहिये। जो प्रश्न विद्यार्थियों द्वारा पूछे जायें उनका, अपना बड़प्पन प्रदर्शित किये बिना उत्तर देना चाहिये, तथा कभी असम्बद्ध उत्तर नहीं देना चाहिये। अध्यापक और विद्यार्थियों के सम्बन्ध प्रेमपूर्ण होते थे, और विद्यार्थी
SR No.022848
Book TitleAacharya Premsagar Chaturvedi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjaykumar Pandey
PublisherPratibha Prakashan
Publication Year2010
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size36 MB
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