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________________ जैन धर्म का भारतीय संस्कृति पर प्रभाव । प्रशान्तवृत्ति उसकी परिणति है। सहिष्णुता, सच्चविता उसका धर्म है। वस्तुतः समता का सतह मानवता की सत्ता में निहित है। यह दोनों सत्तायें आत्मा की विशुद्ध अवस्था के गुण हैं। इन गुणों से समवेत व्यक्तित्व को ही साधु कहा जा सकता है समयाए समणो होइ, बभचेरण बंभणो, नाणेण य मुणी होई, तवेणं होइ तावसे।। ज्ञातव्य है कि समता समुद्र के समान गम्भीर, पृथ्वी के समान क्षमाशील और आकाश के समान स्वच्छ तथा व्यापक है इसलिए समता का सही रूप धर्म है। यही समता और धार्मिक चेतनता सांस्कृतिक और सामुदायिक चेतना का अविनाभावी अंग है जिसमें धृति और सहिष्णुता, अहिंसा और संवेग नियंत्रण जैसे तत्व आपाद समाहित हैं। जैन संस्कृति सामाजिक समता का पक्षधर है इसमें कर्म को महत्व दिया गया है और स्वयं के पुरुषार्थ को प्रस्थापित किया गया है। भगवान महावीर के कथन कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि से सिद्ध होता है कि किये गये कर्मो का फल भोगे बिना आत्मा का छुटकारा नहीं होता। परिणामतः सभी श्रेष्ठ फल-प्राप्ति के अभिलाषीजन कर्म की श्रेष्ठता पर भी पूरा ध्यान देते हैं। अग्नि को स्पर्श करने पर हाथ का जलना सर्वथा निश्चित एवं अटल होता है। उसी प्रकार कर्ता को कर्म का फल भोगना ही पड़ता है। डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी के मन्तव्यानुसार 'कर्म' फल का सिद्धान्त भारत वर्ष की अपनी विशेषता है। ज्ञात है कि उपनिषदों से पूर्व के वैदिक साहित्य में कर्म विषयक चिन्तन का अभाव है परन्तु आरण्यक एवं उपनिषद्काल में अदृष्ट रूप कर्म का वर्णन मिलता है। जैनियों के अनुसार कर्म अदृश्य है और पौद्गलिक है। इनका संबंध हमारे कर्म से तथा राग-द्वेष से है। मिथ्यात्व, अध्यात्म में समन्वय स्थापित कर हमारे आचरण की कार्य-कारणात्मक मीमांसा में उसने कर्मवादी को स्थापित कर ईश्वरवाद को नकार दिया है। __ चरित्र की शुद्धता एवं सम्यक परिपालन किये बिना ज्ञान की आराधना हो ही नहीं सकती। इसीलिए चरित्र को धर्म कहा गया है और धर्म ही यथार्थ जीवन है। मानसिक चंचलता को संयम की लगाम से वशीभूत करना सहयोग,
SR No.022848
Book TitleAacharya Premsagar Chaturvedi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjaykumar Pandey
PublisherPratibha Prakashan
Publication Year2010
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size36 MB
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