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________________ (vii) इन्द्रियों की दासता से मुक्त किया। इसी के नेतृत्व में मनुष्य आदर्शों के ऊंचे मार्गों का आरोही बना और इसी के आचार मार्ग से चलकर उसने कैवल्य प्राप्त किया । ऐसी निर्दोष संस्कृति में आज जान बूझकर विकारों का प्रवेश कराया जा रहा है। जहाँ श्रमण-श्रमणी और श्रावक-श्राविका (चतु:संघ) मिलकर धर्म के इस महारथ को खींचते थे, वहाँ आज ये पृथक्-पृथक् होकर ' महारथ' को गति देने में असमर्थ हो गये हैं । अंगी - अंगी के समान धर्म और धार्मिक का नित्य सम्बन्ध है। न धर्मो धार्मिकैर्विना यह अव्यभिचारी सूत्र है । भारत की श्रमण संस्कृति की अपनी मौलिक पहचान और अवदान लोक भाषा ( प्राकृत) का रहा है जिसमें महावीर और बुद्ध ने अपना उपदेश दिया था । प्राकृत भाषा का विशाल वाङ्मय आज विश्व के सम्मुख विद्यमान हैं जिसमें राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक, व्याकरण, छन्द, न्याय आदि विषयों की सामग्री विद्वानों के सम्मुख अनवेष्य है। वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला, मृद्भाण्ड कला के श्रमण अवदान से तत्कालीन भारतीय संस्कृति के विविध पक्षों का अध्ययन एवं अनुसन्धान एक महत्वपूर्ण विषय के रूप में विश्व के विद्वानों द्वारा अनुसन्धान किया जा रहा है। संगोष्ठी में प्रस्तुत शोध पत्रों के माध्यम से पूर्वांचल की प्रसिद्ध श्रमण संस्कृति का यह एक लघु शोधात्मक प्रयास है, जिसमें आगत विद्वानों का समादर करते हुए उनका प्रकाशन किया गया है। प्रकाशन के लिए संकल्पित भाव से श्रमण संस्कृति शीर्षक से प्रकाशित कार्यवृत्त ' चतवबममकपदह' सम्मान्य आचार्य प्रेम सागर चतुर्वेदी अभिनन्दन ग्रन्थ के माध्यम से जिज्ञासु अनुसंधित्सुओं तक पहुंच रहा है। प्राप्त शोध लेखों में हिन्दी भाषा के 72 लेख प्रारम्भ में एवं आंग्ल भाषा के 6 शोध लेखों को अन्त में व्यवस्थित किया गया है। विनत् अजय कुमार पाण्डेय
SR No.022848
Book TitleAacharya Premsagar Chaturvedi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjaykumar Pandey
PublisherPratibha Prakashan
Publication Year2010
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size36 MB
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