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________________ शेषनाग नागें ॥ ७॥ द्विज पनीया सांसे सहु, प्रणमे वारोवार ॥ नाव जगति || करतां घणी, कलना न पमी लगार ॥ ए ॥ विप्र एक बोल्यो तिहां, सघला दीसो मूढ ॥ प्रणति करो जो तमे घणी, गुण नवी जाणो गूढ ॥ १० ॥ विष्णु रूप जग ए, नहीं, शंख चक्र नवी पास ॥ ईश्वरनुं रूप केम कहो, त्रिशुल त्रिलोचन तास ॥११॥ चार वेद ब्रह्मा मुखे, अज्ञानी तुमे लोक ॥ शुज शणगारो देखीया, काष्ठ उपाडे थोक ॥१॥ ढाल पांचमी. था चित्रशाली था सुख सज्यारे, जो मन माने तो करो बजारे-ए देशी. अकल सरूपी दीसे बे एहरे, करीने विचार पूबशुं तेहरे ॥ साच जूनुं पारखं कीजेरे, नहींतर एजेने देशोटो दीजेरे ॥१॥ ब्राह्मण सघला बोल्या वाणीरे, कवण| नगरीथी आव्या जाणीरे ॥ कवण जातिना बो तुमे नारे, किण कारण श्राव्या रूप बनारे ॥२॥ कवण धरम करो डो साररे, कवण शास्त्र नएया गुण धाररे ॥ वाद करो श्रमशु निरधाररे, तो श्रम उपजे हरख अपाररे ॥३॥ मनोवेग कहे सांजलो विप्ररे, अमे बीए कबामी दीप्ररे ॥ वाद कहो केम कीजे तुमशुरे, तमे सहु श्राव्या । मलीने श्रमशुंरे ॥४॥न्याय पुराणनी नवी जाणुं वातोरे, धरमाधरमनी न बुर्छ तांतोरे॥
SR No.022846
Book TitleDharm Parikshano Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1913
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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