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________________ 92 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन ऊँचे पहियों की गाड़ी रखते थे। बुलाकीदास जी इस्फान में और शील विजय जी ने इस्तंबूल में इसी जाति का राज्य होना बताया है । अतः प्रतीत होता है, कि सिर दरिया के किनारे ताशकंद से थोड़ा उत्तर में बसा तुर्किस्तान ही पद्मसिंह जी का तलंगपुर हो सकता है। पद्मसिंह जी तलंगपुर या तुर्किस्तान से नवापुरी पट्टण गए। नगर के अन्तर में पट्टन शब्द के प्रयोग से प्रतीत होता है, कि यह कोई नदी या समुद्र के किनारे स्थित व्यापारिक नगर था । तुर्कीस्तान और नवापुरी के मध्य वे चन्द्रप्रभु तीर्थ भी गए। इसकी स्थिति वहाँ रही होगी यह कह पाना कठिन है, लेकिन नवापुरी पट्टन ओब नदी की खाड़ी में बसा नोवा पोर्ट ही प्रतीत होता है, जिसकी स्थिति चन्द्रप्रभु जी से 700 को स कही गई है। तारातंबोल नवापुरी पट्टन से 300 कोस दूर कहा गया है। वास्तव में तारातंबोल किसी एक नगर का नाम नहीं है। ये इर्तिश नदी के किनारे बसे तारा और तोबोलस्क नाम के दो नगर है । तारा इर्तिश और इशिम के संगम पर बसा है और तोबोलस्क इर्तिश और तोबेल के संगम पर। इन दो नगरों के मध्य की दूरी बहुत अधिक नहीं है । इसीलिए इनके नामों का प्रयोग एक दूसरे की पहचान के लिए साथ-साथ किया गया है, जो सामान्य प्रथा रही है। बुलाकीदास जी, शील विजय जी. म० आदि इसे सिंधुसागर नदी पर स्थित बताते हैं । संभवतः इर्तिश और भारतीय सिंधु नदी रुसी उच्चारण ईंत में उच्चारण साम्य के भ्रम से उन्होंने इर्तिश को ही सिंधु सागर कहा है । 1 शील विजय ने तारातंबोल से 100 गाउ (गव्यूति) दूर जिस स्वर्ण कांतिनगर का उल्लेख किया है, वह 'अल्ताई' का संस्कृत रूप है। तुर्की और मंगोल भाषाओं में अल्ताई का अर्थ है, स्वर्णगिरी । अल्ताई की पहाड़ियों में स्थित सोने की खाने अज्ञातकाल से ही सारे एशिया की सोने की मांग को पूरा करती रही है । अतः भारतीय व्यापारियों का भी अवश्य ही इन खानों से संबंध सदा से रहा होगा। यह कल्पना की जा सकती है। शील विजय जी ने जैन धर्मी प्रजाजनों से भरे-पूरे जिस लाट देश का तारातंबोल के साथ उल्लेख किया है, वह स्पष्टतः लाटविया है । इन वर्णनों से अल्ताई से लाटविया तक की समस्त प्रजा जैन धर्मावलंबी सिद्ध होती है । उपर्युक्त विवेचन से यह ज्ञात होता है, कि इन उल्लिखित स्थानों में भारतीयों ने पूर्वकाल में अवश्य ही अपने मंदिर, जिनालय आदि बनाए होंगे। साधु-संत भी वहाँ रहते होंगे, उन्होंने शास्त्र भी लिखे होंगे। लेकिन इस्लाम धर्म के प्रचार-प्रसार और पश्चिमी देशों की राजनैतिक उथल-पुथल ने भारतीयों के इन प्रदेशों से प्राचीन संपर्क को तोड़ दिया। बौद्ध धर्म के प्रभाव ने अपनी समान प्रकृति के जैन धर्म के अवशेषों को आत्मसात कर लिया और इसी से अब तक शोध-खोज करने वाले विद्वानों ने इसे
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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