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________________ जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता * 73 उनका राज्याभिषेक हुआ। उसके पश्चात् पन्द्रह हजार वर्ष तक उन्होंने सुखपूर्वक शासन किया। तब एक दिन प्रभु को आत्मज्ञान हुआ और उन्होंने अपना राज्यभार अपने पुत्र विजय को सौंपकर दीक्षा धारण कर ली। मुनि सुव्रतनाथ जी अपराजित नामक पालकी पर विराजमान होकर नील वन में गए। वहाँ उन्होंने बेला (दो उपवास) का नियम लेकर वैशाख कृष्ण दशमी के दिन श्रवण नक्षत्र में सायंकाल के समय एक हजार राजाओं के साथ संयम धारण किया। दीक्षा लेते ही उन्हें मनःपर्यज्ञान हो गया। केवल ज्ञान : दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात् मुनिसुव्रतनाथ जी कठोर तपस्या करते हुए ग्यारह माह तक छद्मस्थ अवस्था में ही विचरण करते रहे। विचरण करते हुए एक दिन वे नील वन में पहुँचे। वहाँ चम्पक वृक्ष के नीचे दो दिन के उपवास का नियम लेकर ध्यानस्थ हुए। वहीं उन्हें वैशाख कृष्ण नवमी के दिन सायंकाल में श्रवण नक्षत्र में केवलज्ञान हुआ। धर्म - परिवार : तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथ जी के धर्म-परिवार में मल्लि आदि अठारह गणधर थे। पाँच सौ द्वादशांग के जानकार थे। इक्कीस हजार शिक्षक थे। एक हजार आठ सौ अवधिज्ञानी थे, इतने ही केवलज्ञानी थे, दो हजार दो सौ विक्रिया ऋद्धि धारक थे, एक हजार पाँच सौ मनःपर्यय ज्ञानी थे और एक हजार दो सौ वादी थे। इस प्रकार सब मिलाकर तीस हजार मुनि उनके साथ थे। पुष्पदन्ता आदि पचास हजार आर्यिकाएँ थीं, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ थीं। संख्यात तिर्यंच और असंख्यात देव उनकी धर्म सभा में प्रवचन सुनने आते थे। इस प्रकार उनकी बारह सभाएँ थीं।" निर्वाण : हजारों वर्षों तक मुनिसुव्रतनाथ जी ने आर्यक्षेत्र में विचरण करते हुए धर्म का प्रवर्तन किया। जब उनकी आयु का एक माह शेष रह गया, तब वे सम्मेदशिखर पर चले गए। वहाँ जाकर उन्होंने एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण कर लिया और फाल्गुन कृष्ण द्वादशी के दिन रात्रि के पिछले भाग में मोक्ष प्राप्त किया, तब देवों ने पंचम निर्वाण कल्याणक की पूजा की।" श्री मुनिसुव्रतनाथ जी के तीर्थंकर काल में श्री रामचंद्रजी आठवें बलदेव तथा लक्ष्मण जी वासुदेव हुए थे। 21. श्री नमिनाथ जी : जम्बूद्वीप के वङ्ग नामक देश में मिथिला नगर था। वहाँ भगवान ऋषभदेव के वंशज काश्यपगौत्री विजय महाराज शासन करते थे। उनकी महारानी का नाम वप्पिला देवी था। शरद ऋतु की प्रथम द्वितीया अर्थात् आश्विन कृष्ण द्वितीया के दिन आश्विन नक्षत्र में रात्रि के पिछले प्रहर में महारानी ने चौदह दिव्य स्वप्न देखे। उसी समय तीर्थकर देव ने माता के गर्भ में प्रवेश किया और देवों ने गर्भ कल्याणक की पूजा की।
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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