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________________ 64 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन चैत्र कृष्णा अमावस्या के दिन रात्रि के प्रथम भाग में चतुर्थ शुक्ल ध्यान में आरुढ़ होकर वे सब मोक्षगामी हुए । तब देवों ने आकर पंचम मोक्ष कल्याणक की पूजा की 1266 15. धर्मनाथ जी : जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में रत्नपुर नामक राज्य था । वहाँ महाप्रतापी राजा भानु राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम सुप्रभा था। एक बार महारानी सुप्रभा ने वैशाख शुक्ला त्रयोदशी के दिन रेवती नक्षत्र में प्रातःकाल के समय चौदह स्वप्न देखे | तब तीर्थंकर देव के जीव ने माता के गर्भ में प्रवेश किया। अपने अवधिज्ञानी पति से उन स्वप्नों का फल जानकर महारानी अति प्रसन्न हुई । नव माह पूर्ण होने पर माघ शुक्ला त्रयोदशी को गुरुयोग में प्रभु का जन्म हुआ । इन्द्रों ने सुमेरु पर्वत पर ले जाकर उनका जन्माभिषेक किया और धर्मनाथ नाम रखा। तब पुनः प्रभु को माता के पास सुला दिया 1267 भगवान धर्मनाथ जी के देह की कांति स्वर्ण के समान थी, आयु दस लाख वर्ष की थी, काया पैंतालीस धनुष ऊँची थी और व्रतपर्याय ढ़ाई लाख वर्ष की थी । तीर्थंकर अनन्तनाथ जी और धर्मनाथ जी के निर्वाणकाल का अंतर चार सागरोपम का था। 68 कुमार धर्मनाथ जी की आयु के ढ़ाई लाख वर्ष बीत गये, तब उनका राज्याभिषेक किया गया । पाँच लाख वर्ष प्रमाण राज्यकाल बीत जाने पर एक दिन उल्कापात देखने से उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया । तब सुधर्म नामक ज्येष्ठ पुत्र को राज्य सौंपकर नागदत्ता नामकी पालकी में बैठकर सालवन चले गये। वहाँ उन्होंने दो दिन के उपवास का नियम लेकर माघशुक्ला त्रयोदशी को सायंकाल के समय पुष्य नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा अंगीकार की । दीक्षित होते ही उन्हें चौथा मनः पर्यय ज्ञान हो गया। केवलज्ञान : दीक्षा लेने के पश्चात 1 वर्ष तक धर्मनाथ जी छद्मस्थ अवस्था में मुनि के रुप में विचरण करते रहे। तब एक दिन अपने दीक्षावन में ही सप्तच्छंद वृक्ष के नीचे दो दिन के उपवास का नियम लेकर योग धारण किया और पौषशुक्ला पूर्णिमा को सायंकाल के समय पुष्य नक्षत्र में केवल ज्ञान प्राप्त किया। तब देवों ने चतुर्थ कल्याणक की पूजा की। धर्म-परिवार : भगवान धर्मनाथजी के धर्म परिवार में अरिष्टसेन आदि तैंतालीस गणधर थे, नौ सौ ग्यारह पूर्वधारी थे, चालीस हजार सात सौ शिक्षक थे, तीन हजार छह सौ तीन प्रकार के अवधिज्ञानी थे, चार हजार पाँच सौ मन:पर्यय ज्ञानी थे, दो हजार आठ सौ वादी थे, इस प्रकार सब मिलाकर चौंसठ हजार मुनि उनकी निश्रा में विचरण करते थे । सुव्रता आदि बासठ हजार चार सौ आर्यिकाएँ थीं। दो लाख श्रावक तथा चार लाख श्राविकाएँ उनकी अनुयायी थीं। वे असंख्यात् देव - देवियों तथा
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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