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________________ 56 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन धर्म-परिवार : सुपार्श्वनाथ भगवान के 95 गणधर थे। दो हजार तीस पूर्वधारी थे, दो लाख चवालीस हजार नौ सौ बीस शिक्षक थे, नौ हजार अवधीज्ञानी थे, ग्यारह हजार केवलज्ञानी थे, पन्द्रह हजार तीन सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक थे, नौ हजार एक सौ पचास मनः पर्ययज्ञानी और आठ हजार छह सौ वादी उनके अनुगामी थे। इस प्रकार वे तीन लाख साधुओं के स्वामी थे। उनकी अनुगामी तीन लाख तीस हजार आर्यिकाएँ थीं। तीन लाख श्रावक और पाँच लाख श्राविकाएँ थीं। असंख्यात देवदेवियाँ और संख्यात् तिर्यंच उनकी वन्दना करते थे। निर्वाण : भगवान सुपार्श्वनाथजी की आयु का जब एक माह शेष रह गया, तब उन्होंने सम्मेदशिखर पर जाकर एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमा योग धारण किया और फाल्गुन कृष्णा सप्तमी के दिन विशाखा नक्षत्र में सूर्योदय के समय मोक्षगामी हुए। 8. चन्द्रप्रभुजी : जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में चन्द्रपुर नामक नगर था। वहाँ के राजा इक्ष्वाकु वंशीय काश्यपगौत्रीय महासेन थे। उनकी रानी लक्ष्मणा ने एक रात्रि में चौदह महास्वप्न देखे। सुखपुर्वक गर्भकाल को पूर्णकर माता लक्ष्मणा ने पौष कृष्णा एकादशी के दिन शक्रयोग में अनुराधा नक्षत्र में अर्धरात्रि में पुत्ररत्न को जन्म दिया। देवदेवेन्द्रों ने अति-पाण्डु-कम्बल-शिला पर प्रभु का जन्माभिषेक किया और पुनः लाकर माता के पास सुला दिया। महाराज महासेन ने जन्म महोत्सव के बारहवें दिन नामकरण के लिए सभी को आमन्त्रित करके कहा, "बालक की माता ने गर्भकाल में चन्द्रमा का दोहन पूर्ण किया और इस बालक के शरीर की प्रभा भी चन्द्रमा जैसी है, अतः इसका नाम चन्द्रप्रभ रखा जाता है।" चन्द्रप्रभु जी आठवें तीर्थंकर हुए। उनकी कान्ति सफेद, आयु दस लाख पूर्व की, काया डेढ़ सौ धनुष ऊँची और व्रत पर्याय चौबीस पूर्वांग (दो करोड़ सोलह लाख वर्ष) कम एक लाख पूर्व की हुई। सुपार्श्वनाथजी और चन्द्रप्रभुजी के निर्वाणकाल का अंतर नौ सौ कोटि सागरोपम का हुआ।" चन्द्रप्रभुजी के दो लाख पचास हजार पूर्व व्यतीत होने पर कुमार अवस्था में उनका राज्याभिषेक हुआ। कौमार्यावस्था में यथा समय उनका विवाह हुआ। अनेक वर्षों तक साम्राज्य भोग के पश्चात लौकान्तिक देवों द्वारा प्रतिबद्ध किये जाने पर महाराज चन्द्रप्रभ ने वरचन्द्र नामक पुत्र का राज्याभिषेक करके उसे राज्य सौंप दिया। उसके पश्चात् दीक्षाकल्याणक की पूजा करके देवों के द्वारा लायी गयी विमला पालकी में बैठकर सर्वर्तुक वन में जाकर दो दिन उपवास करने के पश्चात् पौषकृष्णा एकादशी के दिन अनुराधा नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ निग्रंथ दीक्षा अंगीकार की।" केवलज्ञान : दीक्षा के दूसरे दिन ही उन्हें मनः पर्यायज्ञान प्राप्त हो गया। समस्त पदार्थों में माध्यस्थ भाव रखते हुए वे जिन-कल्प-मुद्रा में तीन माह व्यतीत कर दीक्षा
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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