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________________ 46 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन भिक्षाचर्या का सूत्रपात : आचार्य जिनसेन के अनुसार ऋषभदेव भगवान ने छह मास का अनशन किया था।”” अन्य श्वेताम्बर साहित्य में ऐसा उल्लेख नहीं मिलता, वहाँ बेले की तपस्या के पश्चात् उनके भिक्षा के लिए भ्रमण का उल्लेख मिलता है। लेकिन लोगों को विधि पूर्वक भिक्षा देने का ज्ञान न होने के कारण कोई अपनी सुन्दर कन्या, कोई बहुमूल्य वस्त्राभूषण, कोई हस्ती अश्व, रथ, वाहन, छत्र, सिंहासनादि और कोई फलफूल आदि प्रस्तुत कर उन्हें ग्रहण करने की प्रार्थना करता, किंतु विधिपूर्वक भिक्षा देने का ध्यान किसी को नहीं आता । भगवान ऋषभदेव इन उपहारों को ग्रहण किए बिना ही लौट जाते । इस प्रकार भिक्षा के लिए विचरण करते हुए ऋषभदेव भगवान को एक वर्ष बीत गया, फिर भी उनके मन में कोई ग्लानि पैदा नहीं हुई। एक दिन भ्रमण करते हुए प्रभु कुरु जनपद में हस्तिनापुर पधारे। वहाँ बाहुबली के पौत्र एवं राजा सोमप्रभ के पुत्र श्रेयांसकुमार युवराज थे । श्रेयांस ने भगवान को देखा तो दर्शन करते ही ज्ञानावरण के क्षयोपशम से उन्हें जातिस्मरण ज्ञान हो गया कि, ये प्रथम तीर्थंकर है, आरम्भ - परिग्रह के त्यागी हैं, अतः इन्हें निर्दोष आहार देना चाहिए। उसी समय भवन में इक्षुरस के घड़े लाए गए थे । अतः श्रेयांस ने निर्दोष भाव से 108 इक्षुरस के घड़ों से भगवान को पारणा कराया। भगवान अछिद्रपाणि थे, अतः रस की एक भी बूंद नीचे नहीं गिरी । भगवान ऋषभदेव ने जगत को सर्वप्रथम वर्षीतप करके तप का पाठ पढ़ाया । श्रेयांस कुमार ने भिक्षादान की विधि से अनजान लोगों को वैशाख शुक्ला तृतीया के दिन प्रभु को पारणा करवाकर सर्वप्रथम भिक्षा-दान की विधि बताई ।" इस दिन को आज भी अक्षय तृतीया के रूप में जाना जाता है। 176 केवलज्ञान की प्राप्तिः प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् एक हजार वर्ष बाद ऋषभदेव भगवान ने चार घातिक कर्मों का सम्पूर्ण क्षय किया और पुरिमताल नगर के बाहर शकटमुख उद्यान में फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन अट्ठम तप के साथ दिन के पूर्व भाग में उत्तराषाढ़ नक्षत्र के योग में ध्यान मग्न हुए और केवलज्ञान, केवल दर्शन की उपलब्धि की । देवों ने केवलज्ञान का महोत्सव किया। भगवान भाव अरिहंत हो गए। अरिहंत होने से आप में बारह गुण प्रकट हुए जो इस प्रकार हैं- 1. अनन्त ज्ञान, 2. अनन्त दर्शन, 3. अनन्त चारित्र, 4. अनन्त बल वीर्य, 5. अशोक वृक्ष, 6. देवकृत पुष्प वृष्टि, 7. दिव्य ध्वनि, 8. चामर, 9. स्फटिक सिंहासन, 10. छत्र, 11. आकाश में देवदुन्दुभि, 12. भामण्डल । 178 पाँच से बारह तक के आठ गुणों को प्रातिहार्य कहा गया हैं।”" भक्तिवश देवों द्वारा यह महिमा की जाती हैं । तीर्थंकरों की विशेषता : सामान्य केवली की अपेक्षा अरिहंत तीर्थंकर में खास विशेषताएँ होती हैं, जो प्रभावोत्पादक रूप से अतिशय रूप में होती हैं। जैसा कि
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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