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________________ 464 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन लिए किसी एकान्त निर्बाध स्थान में आसन बिछाकर अल्पवस्त्र धारण करके कम से कम 48 मिनट तक, संपूर्ण सावद्य व्यापारों का त्याग कर सांसारिक प्रवृत्तियों से अलग होकर अपनी योग्यतानुसार अध्ययन, चिन्तन आदि द्वारा आत्मा का ध्यान करना चाहिए। सामायिक करते समय श्रावक भी श्रमण जैसा ही हो जाता है। श्रावक को प्रतिदिन एक सामायिक तो अवश्य करनी चाहिये। इस व्रत के पाँच अतिचार हैं। - 1. मनः दुष्प्रणिधान : सामायिक के काल में मन से अहितकर एवं बाह्य विचार करना । 2. वचन दुष्प्रणिधान : सामायिक के काल में वचन से कठोर एवं दोषपूर्ण वचनों का प्रयोग करना । 3. काय दुष्प्रणिधान : सामायिक के समय हिंसादि पापकर्म करना । 150 4. स्मृत्यकरण : सामायिक न करना या ली हुई सामायिक को भूल जाना। 5. अनवस्थितता : सामायिक को निश्चित विधि से न करना ।' श्रावक को पूर्ण सतर्कता रखते हुए उपर्युक्त अतिचारों से बचाना चाहिये । 2. देशावकाशिक व्रत : देश का अर्थ है क्षेत्र । एक नियत क्षेत्र में निश्चित अवधि के लिए अपने आपको सीमित रखना देशावकाशिक व्रत है। इस व्रत में श्रावक मन, वचन व कर्म तीनों से क्षेत्र की मर्यादा करता है । अतः सीमित क्षेत्र के बाहर की वस्तुओं का भी उपभोग नहीं कर पाता है । अर्थात् देशावकाशिक व्रत में क्षेत्र सीमा निर्धारण से उपभोग सामग्री की सीमा भी स्वतः ही संक्षिप्त हो जाती है।" इस व्रत के भी पाँच अतिचार हैं । 152 1. आनयन प्रयोग : मर्यादित क्षेत्र के बाहर की वस्तु मंगवाना । 2. प्रेष्य प्रयोग : मर्यादित क्षेत्र के बाहर वस्तु भेजना । 3. शब्दानुपात : मर्यादित क्षेत्र के बाहर के 4. रुपानुपात : मर्यादित क्षेत्र से बाहर के व्यक्ति को शब्द करके बुलाना । मनुष्य को अपना रूप दिखाकर बुलाना । 5. बाह्य पुद्गल प्रक्षेप : मिट्टी, पत्थर आदि फेंककर मर्यादित प्रदेश से बाहर के मनुष्य से कोई कार्य कराना । 3. पौषधोपवास : पौषधोपवास आत्म अभ्युदय की सर्वोत्तम साधना है। एक रात-दिन के लिए सचित्त वस्तुओं का, शस्त्र का, पाप व्यापार का, भोजन-पान, शरीर श्रृंगार तथा अब्रह्मचर्य का त्याग करना पौषधव्रत है । पौषधव्रतधारी की स्थिति साधु जैसी ही होती है। श्रावक भी धर्माचार्य के पास अथवा धर्मस्थान में ही रहकर इस व्रत को धारण करता है । पौषध में गृहस्थोचित्त वस्त्र नहीं पहनते, पलंग आदि पर नहीं सोते और स्नान भी नहीं करते हैं । सांसारिक प्रपंचों से सर्वथा अलग रहकर एकान्त में स्वाध्याय, ध्यान तथा आत्मचिन्तन आदि करते हुए जीवन को पवित्र बनाना ही इस
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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