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________________ 44 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन 28. 30. 27. हयगज परीक्षण 29. हेमरत्न भेद 31. तत्कालबुद्धि काम विक्रिया पुरुष स्त्री लक्षण अष्टादशलिपि परिच्छेद 32. वस्तुसिद्धि 34. वैद्यक क्रिया सारिश्रम 38. चूर्ण योग 36. 40. वचन पाटव 33. 35. कुम्भ भ्रम 37. अंजन योग 39. हस्तलाघव 41. भोज्यविधि 43. मुखमण्डन 45. कथाकथन 47. 42. वाणिज्यविधि शालि खण्डन LE 44. 46. पुष्पग्रथन वक्रोक्ति 48. काव्यशक्ति 50. सर्वभाषा विशेष 49. स्फार 52. भूषण परिधान 51. अभिधानज्ञान 53. भृत्योपचार 54. गृहाचार 56. परिनिराकरण 58. केशबन्धन 55. व्याकरण 57. रन्धन 59. विणानाद 61. अंक विचार 63. अन्त्याक्षरिका 60. वितण्डावाद लोक व्यवहार 62. 64. प्रश्नप्रहेलिका सामाजिक व्यवस्था ( वर्ण व्यवस्था ) का सूत्रपात : भोग युग में मनुष्य न तो परिश्रम करता था, न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसे कोई कर्म करना पड़ता था। सब कुछ स्वतः ही होता था, अतः किसी प्रकार की व्यवस्था की आवश्यकता ही नहीं थी। चूँकि भगवान ऋषभदेव ने ही मानव को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कर्म करना सिखाया, तभी लोगों में कार्य विभाजन की व्यवस्था की आवश्यकता हुई । अतः ऋषभदेवजी ने कर्म के आधार पर समाज के लोगों को तीन वर्णों में विभाजित करके उन्हें उनकी योग्यतानुसार कार्य सौंप दिये । इस प्रकार कार्य विभाजन से समाज में एक व्यवस्थित जीवन प्रारम्भ हुआ । जो लोग शारीरिक दृष्टि से सुदृढ़ और शक्ति सम्पन्न थे, उन्हें प्रजा की रक्षा के कार्य में नियुक्त करके पहचान के लिए 'क्षत्रिय' शब्द की संज्ञा दी । जो लोग कृषि, पशुपालन व वस्तुओं के क्रय-विक्रय-वितरण अर्थात् वाणिज्य व्यवसाय में निपुण हुए उन लोगों के वर्ग को वैश्य वर्ण की संज्ञा दी। जिन कार्यों को करने में क्षत्रिय और वैश्य लोग प्रायः अनिच्छा और अरुचि रखते, उन सेवा और सफाई के कार्यों को भी करने में जो लोग तत्पर हुए, सेवा में
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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