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________________ 450 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन वर्षावास रहना कल्पता है (उचित है), किन्तु पचासवीं रात्रि का उल्लंघन करना उचित नहीं है, उससे पूर्व ही वर्षावास कर लेना चाहिये। वर्षावास में रहे हुए निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनियों को सभी ओर से पाँच कोष तक अवग्रह को स्वीकार कर रहना कल्पता है। पानी से गीला हुआ हाथ जब तक न सूखे, तब तक भी अवग्रह में रहना उचित है और बहुत समय तक भी अवग्रह में रहना कल्पता है, लेकिन अवग्रह से बाहर रहना नहीं कल्पता है तथा उन्हें चारों ओर पाँच कोस तक भिक्षाचर्या के लिए जाना कल्पता है और पीछे लौटना कल्पता है।" वर्षावास में रहे हुए निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनियाँ, हृष्ट-पुष्ट एवं स्वस्थ हो, बलवान हों उनको इन नौ रस विकृतियों का बार-बार सेवन करना नहीं कल्पता - 1, क्षीर (दूध), 2. दही, 3. मक्खन, 4. घृत, 5. तेल, 6. गुड़, 7. मधु, 8. मद्य व 9. मांस। __ वर्षावास में रहे हुए निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थिनियों को उनके शरीर पर से पानी गिरता हो या उनका शरीर गिला हो तो अशन, पान, खादिम और स्वादिम को खाना नहीं कल्पता। शरीर में सात भाग स्नेहायतन बताए गए हैं अर्थात् शरीर में सात भाग ऐसे हैं, जहाँ पर पानी टिक सकता है, जैसे 1. दोनों हाथ, 2. दोनो हाथों के रेखाएँ, 3. नाखून, 4. नाखून के अग्रभाग, 5. दोनों भौंहे, 6. नीचे का ओष्ठ अर्थात् दाढी, 7. ऊपर का ओष्ठ अर्थात् पूँछे। जब निग्रंथ और निग्रंथिनियों को ऐसा ज्ञात हो, कि अब मेरे शरीर में पानी का आर्द्रपन बिल्कुल नहीं है, तो उनको अशन, पान, खादिम और स्वादिम का आहार करना कल्पता है। सभी छद्मस्थ निग्रंथ या निर्ग्रथिनी को सम्यक् प्रकार से पुनः-पुनः ये आठ सूक्ष्म जानने योग्य, देखने योग्य और सावधानीपूर्वक प्रतिलेखना करने योग्य हैं। ये आठ सूक्ष्म इस प्रकार हैं - 1. प्राण सूक्ष्म, 2. पनक सूक्ष्म, 3. बीज सूक्ष्म, 4. हरित सूक्ष्म, 5. पुष्प सूक्ष्म, 6. अण्ड सूक्ष्म, 7. लयन सूक्ष्म, 8. स्नेह सूक्ष्म।" वर्षावास में रहे हुए भिक्षु को आहार-पानी के लिए जाना हो, किसी प्रकार की चिकित्सा करवानी हो, विहार भूमि या विचारभूमि की ओर जाना हो अथवा कोई तप करना अथवा अन्य कोई भी अपनी इच्छित क्रिया करनी हो, तो पहले गरुजनों की आज्ञा प्राप्त करके ही, उन्हें कुछ भी करना कल्पता है अन्यथा नहीं। वर्षावास में रहे हुए निर्ग्रन्थों एवं निर्ग्रन्थिनियों को सिर पर गाय के रोम जितने भी केश हों तो इस प्रकार पर्युषण के पश्चात् उस रात्रि को उल्लंघन करना नहीं कल्पता। अर्थात् पर्युषण से पहले ही केश लुंचन कर लेना चाहिये। हाथों से नोंच कर बालों को निकालना केश लोच है। सभी तीर्थंकर प्रव्रज्या
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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