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________________ नीति मीमांसा * 447 अर्थात् सीमित प्रकार की भोज्य सामग्री का उपभोग करना ही वृत्ति संक्षेप 4. रस परित्याग : तेल, घी, दूध, दही, मीठा आदि पाँच पदार्थों को विगय अथवा रस कहा गया है। अतः इन विगय रसों का सेवन न करना ही रस परित्याग है। 5. काय क्लेश : धर्म साधना के विविध आसन आदि के द्वारा समभाव पूर्वक शारीरिक कष्ट सहन करना कायक्लेश है। कायक्लेश के सात भेद 1. स्थानायतिक : शरीर भूमि पर पूर्ण रूप से फैला देना। 2. उत्कटुकासनिक : उकडू बैठना। 3. प्रतिमा स्थायी : प्रतिमा (मूर्ति) की तरह निश्चल रहना। 4. वीरासनिक : सिंहासन पर बैठे हुए के समान आसन लगाना। 5. नैषेधिक : पैरों को बराबर करके रखना। 6. दंडायतिक : दंड की तरह देह को फैलाना। 7. लगण्डशायी : इस प्रकार सोना कि पीठ पृथ्वी को न छुए। 6. प्रतिसंलीनता : विषयों व कषायों से आत्मा को बचाने के लिए बाधा रहित एकान्त स्थान मे रहना प्रति संलीनता है। 2. आभ्यन्तर तप : जिन तपों में मानसिक क्रिया की प्रधानता होती है, मन के भावों को शुद्ध करने का प्रयास किया जाता है और जो मुख्य रूप से बाहरी द्रव्यों की अपेक्षा न रखने के कारण दूसरों को न दिख सके, वे आभ्यान्तर तप हैं। ये आभ्यान्तर तप भी छः प्रकार का होता है। 1. प्रायश्चित : प्रायश्चित के द्वारा धारण किए हुए व्रतों में हुए प्रमाद जनित दोषों का शोधन किया जाता है। किए गए अपराधों को स्वीकार करके स्वयं में सुधार कर पुनः निर्मल चारित्र का पालन किया जाता है। अतः इसे भी तप कहा गया है। प्रायश्चित के दस भेद हैं - 1. आलोचना, 2. प्रतिक्रमण, 3. तदुभय, 4. विवेक, 5. व्युत्सर्ग, 6. तप, 7. छेद, 8. मूल, 9. अनवस्थित तथा 10. पाराञ्चित।" __ गुरु के समक्ष शुद्ध भाव से अपने अपराध को प्रकट कर देना आलोचना है। किए गए अपराध के लिए दंड ग्रहण करके उससे निवृत्त होना तथा भविष्य में अपराध न हो ऐसी प्रतिज्ञा करना प्रतिक्रमण है। एक ही अपराध के लिए आलोचना तथा प्रतिक्रमण दोनों करना तदुभय है। भोजन करते समय अशुद्ध, अकल्पनीय, तीन प्रहर से अधिक रखा हुआ आहार मिले, तो उसे परठ देना या त्याग देना विवेक प्रायश्चित है। कायोत्सर्ग करना अर्थात् एकाग्रतापूर्वक शरीर और वचन के व्यापारों को छोड़ देना व्युत्सर्ग है। उपवास, आयंबिल अनशनादि बाह्य तप करना तप है। कारणवश
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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