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________________ 432 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त-किसी भी परिग्रह का ग्रहण मैं स्वयं नहीं करूँगा, दूसरों से ग्रहण नहीं कराऊँगा, और परिग्रह का ग्रहण करने वालों का अनुमोदन नहीं करूँगा। मैं अतीत के परिग्रह से निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा व गर्दा करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ। शास्त्रकारों ने परिग्रह के दो भेद कहे हैं - बाह्य परिग्रह तथा आभ्यान्तर परिग्रह। 1. बाह्य परिग्रह : बाह्य परिग्रह नौ प्रकार का कहा गया है - "धनं धान्यं स्वर्ण रुप्य, कुप्यानि क्षेत्र वास्तुनी। द्विपपाच्चतुष्पाच्चेति स्युर्नव बाह्याः परिग्रहाः॥ अर्थात् धन, धान्य, सोना, चाँदी, कुप्य, क्षेत्र, वास्तु, द्विपद और चतुष्पद ये नौ बाह्य परिग्रह है। 2. आभ्यान्तर परिग्रह : श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में अभ्यान्तर परिग्रह के 14 भेद कहे गए हैं - राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यादर्शन, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा और वेद। उपर्युक्त सभी बाह्य एवं आभ्यांतर परिग्रहों के प्रति ममत्व भाव न रखना ही सच्चा अपरिग्रह है। श्रमण संयम की साधना के लिए वस्त्र-पात्र, रजोहरण आदि सामग्री रखते हैं, लेकिन उनके प्रति ममत्व भाव या आसक्ति नहीं रखते। अतः अपरिग्रही होते हैं। इस महाव्रत के निर्दोष पालन के लिए वह मनोहर शब्द, रूप, रस, गंध तथा स्पर्श में आसक्ति का पूर्ण त्याग करता है। इस प्रकार पंचमहाव्रतों का जो अनगार यथाश्रुत, यथाकल्प, यथामार्ग भलीभाँति पालन करता है, वह सर्व कर्मबन्धनों से मुक्त होता हुआ अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। इन महाव्रतों की रक्षा के लिए पाँच समिति, तीन गुप्ति रूप आठ प्रवचन माता तथा विभिन्न भावनाओं का निरुपण किया गया है। 2. अष्ट प्रवचन माताएँ : पाँच समिति एवं तीन गप्ति मिलकर अष्ट प्रवचन माता कहलाती है। क्योंकि माता की तरह ही ये श्रमण के लिए हितकारी होती हैं तथा उनके संयम को परिपुष्ट करती है। श्रमण जीवन की आवश्यक क्रियाओं में सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करना समिति है। कायिक, वाचिक तथा मानसिक क्रिया का सभी प्रकार से निग्रह करना गुप्ति है। गुप्ति में अतिक्रिया का निषेध तथा समिति में सत्क्रिया का प्रवर्तन मुख्य है। तीन गुप्ति : ___ "सम्यग्योगनिग्रहोगुप्तिः। 46 __ अर्थात् सम्यग रूप से योगनिग्रह को गुप्ति कहते हैं। मन, वचन तथा काया की प्रवृत्तियों रूप योगों को ज्ञान और श्रद्धापूर्वक प्रशस्त रूप से जो निग्रह किया जाए वही
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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